एक अध्यापक की हृदयवाणी

देवेन्द्र अहिरवार/ एक समय की बात है लोगों में कुछ पाने की तमन्ना थी हक़ प्राप्त करने की लगन जजवा था शुरूआत एक साथ हुई फिर रास्ते अलग अलग हुए पर मंजिल एक ही थी।

एक रास्ता मुश्किलों भरा था जिसमे सफलता सिर्फ एक सपना के सामान थी लक्ष्य प्रतिष्ठा की चाहत में कहीं खोने सा लगा फिर भी लोग सफलता की चाहत में बताए हुए मार्ग पर चलते गए आशा थी विश्वास था की मंजिल मिलेगी परन्तु मंजिल मिलना तो दूर दूर तक नजर भी नहीं आई। क्या कुछ नहीं किया कर्त्तव्य एवं दायित्व से भी मुंह मोड़ना पड़ा। मुखिया ने कुछ सपने भी दिखाए दावे भी किया पर समय के साथ थोथे साबित हुए।

दूसरा रास्ता था आशा और विश्वास का जो राजा के वादों पर आधारित था जिस पर लोगों ने विश्वास नहीं जताया क्योंकि वो सिर्फ विद्रोह पर ही विश्वास किया करते थे।
ह्रदय व्यथित था मन व्याकुल। जहां से चले वही वापिस आ गए। निराशा थी पीड़ा थी क्रोध भी था अपनी गलतियों पर अपने नेतृत्व पर। विचार शुरू हुआ आत्ममंथन भी हुआ प्रश्न उठा आखिर मंजिल दूर क्यों होती जा रही है।

चारो तरफ सन्नाटा था न कोई हवा न कोई हरकत सब शांत फिर भी विश्वास ने दम नहीं तोडा रास्ते दो थे अब सबका उस पर ध्यान था। वह दूसरा रास्ता पहले मंजिल के दर्शन भी करा चूका था

उस रास्ते से एक हवा का झोंका आया जिसमे खुशियों की महक आ रही थी मुकाम की सुगंध थी लोग अपने पहले का रास्ता छोड़ उस तरफ मुड़ने लगे क्योंकि लोगों को मुकाम तक पहुंचना था रास्ता चाहे कोई भी हो। हवा के उस झोंके से वातावरण में एक हलचल हुई निराशा कम होने लगी लोगों में विश्वास जाग्रत हुआ क्योंकि अँधेरे में रोशनी की एक किरण भी सुकून दे जाती है।

ये गतिविधि देख पहली राह के मार्गदर्शक हताश हो गए क्रोधित हो गए उनको खुशियों की महक भी दुर्गन्ध के समान प्रतीत होने लगी फिर क्या था प्रतिष्ठा के लिए फिज़ाओ में जहर घोलना शुरू कर दिया गया।

आखिर ये क्यों हुआ मंजिल तो एक ही थी भले ही रास्ते अलग अलग। साथियो ये आत्ममंथन अतिमहत्वपूर्ण है की हमें मंजिल तक पहुंचना है उस मार्ग से जो ज्यादा कारगर सिद्ध हो।

सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय।""
देवेन्द्र अहिरवार

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