चिंतन का ताना-बाना

सुबोध आचार्य/ जयपुर के जंतर-मंतर से मैं फिर हाजिर हूं। कल पहले दिन सोनिया गांधी ने यह स्वीकार किया कि स्वयं की महत्वाकांक्षा के चलते कांग्रेस आज कहां पहुंच गई है। राहुलजी ने कहा कि कार्यकर्ताओं को आगे नहीं बढ़ने दिया जाता है। अरे, कहना आसान है, करना मुश्किल है। किसी साधारण कार्यकर्ता को प्रदेश अण्यक्ष बनाकर तो दिखाओ, क्षत्रपों की भीड़ में से कोई भी स्वीकार करने को तैयार है।



युवाओं को आगे लाने की बात से कितने सहमत है औश्र कितने असहमत, यह तो समय ही बताएगा, इंदिराजी के समय में प्रधानमंत्री की दौड़ में क्या कम लोग शामिल थे? तिवारी कांग्रेस का बनना उसका ही नतीजा था। बाद में शरद पवार ने भी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाई, वही वजह थी क्योंकि गांधी परिवार से मोहभंग होता चला गया। आज राहुल गांधी को सामने रखकर फिर चुनाव में ताल ठोंकने बात हो रही है। आपसी खींचतान किस पार्टी में नहीं है। गुजरात चुनाव परिणाम के बाद यह संकट औश्र बढ़ गया है। 

मोदी बनाम राहुल को मीडिया द्वारा हवा दी जा रही है। चुनाव किसी व्यक्ति विशेषके नाम पर नहीं लड़े जाते। नीतियों के आधार पर लड़े जाते हैं, लेकिन नीतियां अब दरकिनार होती जा रही हैं। व्यक्ति की छवि महत्वपूर्ण हो रही है। कांग्रेस को चिंतन में यह विष्य भी होना उसके वरिष्ठ नेता देश की बात कम, पार्टियों की बात ज्यादा करते हैं। यूपीए के सहयोगी दल केवल दिखावे के सहयोगी हैं, यह बात कांग्रेस क्यों नहीं समझ पा रही है? एक बार अपने खुद के बूते पर भारत की जनता को दिखाए तो जनता भी समझेगी कि यही असली कांग्रेस है। 

आज की स्थिति में भाजपा ऐसे मुकाम पर पहुंच गई है कि वह स्वयं के बूते पर आगामी लोकसभा तथा विधानसभाओं का चुनाव लड़ सकती है। लेकिन, कांग्रेस अध्यक्ष का बार—बार यह कहना कि सहयोगी दलों से सामंजस्य बना के रखें। अपने अंदर के आत्म विश्वास को कम करके देखा जा रहा है। राहुल गांधी अपने पिता के ही फार्मूले को आगे बढ़ाकर चुनाव वैतरणी पार करने की बात कह रहे हैं। युवाओं के साथ बुजुर्ग नेताओं का अनुभव भी उनको अवश्य लेना होगा, कांग्रेस चुनाव के पहले—पहले नौ राज्यों में भारी बदलाव करने की शिश में होगी, लेकिन ये बदलाव नहीं विपरीत न दे जाए इस बात का भी ध्यान रखना होगा।

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