न्याय और न्यायाधीश

राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत में अजीब सा संकट है सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) के मामले में सदस्यों के नाम तय करने के लिए प्रधानमंत्री ने एक बैठक बुलाई थी, जिसमें प्रधान न्यायाधीश को आमंत्रित किया गया था। प्रधान न्यायाधीश का पक्ष यह है कि सुप्रीम कोर्ट की एक पांच सदस्यीय बेंच एनजेएसी की वैधता पर विचार कर रही है, इसलिए उनका इस बैठक में जाना उचित नहीं होगा।

अगर सरकार बिना प्रधान न्यायाधीश की मौजूदगी के भी सदस्यों को मनोनीत करती है, तो यह न्यायपालिका और सरकार के बीच सीधे टकराव की तरह होगा। इसलिए सरकार ने इस मामले की जांच कर रही बेंच से यह आग्रह किया है कि वह प्रधान न्यायाधीश से इस बैठक में जाने के लिए कहे।अगर यह बैठक टल जाती है, तो काफी सारी न्यायिक नियुक्तियों पर अनिश्चय की तलवार टंग जाएगी।

देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में 12 अतिरिक्त न्यायाधीशों का कार्यकाल खत्म हो रहा है और उनके कार्यकाल को बढ़ाने के लिए एनजेएसी की जरूरत होगी। इसके अलावा सात उच्च न्यायालयों में कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश हैं, उनकी जगह स्थायी नियुक्तियां होनी हैं। अगले महीने आंध्र और तेलंगाना हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी रिटायर हो रहे हैं, उनकी जगह भी नियुक्ति के बारे में एनजेएसी को तय करना है।

ये तात्कालिक मुद्दे तो गौण हैं, असली सवाल जो न्यायपालिका और विधायिका के बीच अटका है, वह न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका के बाहर के लोगों के हस्तक्षेप का है। पिछले कई साल से सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम व्यवस्था लागू कर रखी थी। इसमें सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश और अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश न्यायिक नियुक्तियों का फैसला करते थे। इमरजेंसी के दौरान न्यायिक नियुक्तियों में जिस तरह की छेड़छाड़ की गई, उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह की व्यवस्था लागू कर दी। सन 1993 में जजों की नियुक्ति से संबंधित एक मामले की सुनवाई के बाद यह व्यवस्था स्थापित हो गई। 

अदालत ने यह तय किया कि न्यायिक स्वायत्तता के नजरिये से यह जरूरी है कि न्यायिक नियुक्तियां सिर्फ न्यायपालिका के लोग ही करें, विधायिका और कार्यपालिका का इसमें हस्तक्षेप न हो। इस व्यवस्था के विरोधियों का यह कहना है कि संविधान में कॉलेजियम व्यवस्था का कहीं जिक्र नहीं है। संविधान यह कहता है कि नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति को यानी सरकार को है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश की सलाह ली जानी चाहिए। दूसरा मुद्दा यह है कि न्यायपालिका की जवाबदेही और पारदर्शिता बनाए रखने के नजरिये से यह जरूरी है कि न्याय को सिर्फ न्यायपालिका के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।

प्रधान न्यायाधीश के पक्ष में तर्क यह है कि सुप्रीम कोर्ट एनजेएसी की सांविधानिकता पर विचार कर रहा है, इसलिए उसकी वैधता ही संदिग्ध है। दूसरा तर्क यह है कि एनजेएसी का गठन भारतीय संसद के बनाए कानून के तहत हुआ है और लोकतंत्र में विधायिका की राय सबसे ऊपर होती है। यह कानून वैध तरीके से संसद में बना है और देश की तमाम विधानसभाओं ने भी इस पर मुहर लगाई है, इसलिए अभी तो यह देश का कानून है और इसका पालन करना जरूरी है। लोकतंत्र के लिए अच्छा यही है कि सभी अपना विवाद सद्भावना के साथ खत्म करें, ताकि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में टकराव की दीर्घकालीन स्थिति न बने।

श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com


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