
इस बीच राजनीति में कई पिछड़ी और अति-पिछड़ी जातियां सबसे ज्यादा ताकतवर हो गई थीं और इन्होंने आत्मसम्मान की चाह रखने वाले दलितों का हिंसक विरोध शुरू किया। यह जातिगत विद्वेष अब अपने चरम पर है, लेकिन तमाम राजनीतिक पार्टियां अपने स्वार्थ की वजह से इसके खिलाफ कदम नहीं उठातीं। तमिलनाडु के कुछ दक्षिणी जिलों में स्थिति यह है कि स्कूलों में बच्चे कलाई में अलग-अलग रंग के धागे या पट्टियां बांधकर आते हैं, जिनसे उनकी जाति पहचानी जाए। यहां तक कि माथे पर तिलक या बिंदी या बनियान का रंग भी जाति के अनुसार होता है। इस वजह से स्कूलों में ही बच्चे जाति आधारित कथित दुश्मन और दोस्त की पहचान करना सीख जाते हैं। यह स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि पिछले दिनों आई एक खबर के मुताबिक, एक जिले के कलेक्टर ने स्कूलों में कलाई पर किसी भी रंग के धागे या पट्टियां बांधने पर पाबंदी लगा दी, लेकिन ऐसे आदेशों पर अमल करवाना तकरीबन नामुमकिन होता है।
एक शताब्दी पहले पिछड़ी जातियां व दलित, सवर्णों के वर्चस्व के खिलाफ एकजुट थे, लेकिन अब दलित उन्हीं पिछड़ी जातियों की हिंसा और अत्याचार के शिकार हो रहे हैं। कमोबेश यही स्थिति पूरे देश में है, जिसकी वजह से समाज के सबसे निचले पायदान पर मौजूद समूह अब भी उस बराबरी से वंचित हैं, जिसका वादा हमारे गणतंत्र में किया गया है।
- श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
- संपर्क 9425022703
- rakeshdubeyrsa@gmail.com