क्यों झुकती हैं सरकारें

राकेश दुबे@प्रतिदिन। हरियाणा में जाट आरक्षण का हल नहीं निकला, जिस प्रकार की वीभत्स खबरें निकलकर  आई, वे देश की समस्त आरक्षण व्यवस्था और सरकारों के विवेक पर प्रश्न चिन्ह लगाती है | जाटों के इस आरक्षण आन्दोलन  के मामले में पहले राज्य सरकार और बाद में केंद्र सरकार जाट नेताओं को वस्तुस्थिति समझाने में नाकाम रही। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने तो जाटों को आरक्षण देना मान ही लिया था। राजस्थान में  ऐसी घोषणा का भाजपा को भारी फायदा मिला था । हरियाणा में जाटों ने आरक्षण लेने के लिए क्या-क्या नहीं किया! इतिहास के पन्नों में जाटों के दमन और पीड़ा की खोज शुरू हुई। यों, जाट हैसियत में किसी से भी कम होने को तैयार नहीं। हरियाणा में चौधराहट कायम रखने के लिए इनके बीच गजब की एकता दिखती है जो खापों के फैसलों में अक्सर सामने आती है। बात केंद्र की चिंता की हो रही थी। इधर जाटों को आरक्षण लाभ दिया जाए तो उधर दूसरी जातियां भी विरोध का झंडा उठा कर सड़कों पर उतर आएंगी। दूसरे राज्यों की बड़ी जातियां भी अपने बल पर स्थिति को प्रभावित करने की कोशिश करेंगी तो केंद्र कहां-कहां घुटने टेकेगा?

राजस्थान के गुज्जर तो चाहते हैं कि उन्हें ओबीसी से हटाकर अनुसूचित जनजाति घोषित किया जाए। ओबीसी की लगातार बढ़ती सूची में बड़ी जातियों की हिस्सेदारी भी तो कम होती जा रही है। ऐसे में उनकी घबराहट समझ में आती है। यहां यह भी जिक्र के लायक है कि गुज्जर समुदाय की मांग का दूसरी जातियां विरोध कर रही हैं। ठीक वैसे ही जैसे हरियाणा में जाटों को दूसरे समुदायों का विरोध झेलना पड़ रहा है। हरियाणा में यह आग किसने सुलगाई या किसने भड़काई, यह सवाल गौण है। प्रदेश की सत्तारूढ़ सरकार के विरोधियों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे सरकार के लिए समस्याएं खड़ी न करें। चूंकि विरोध और हिंसा का केंद्र रोहतक रहा, इसलिए निशाना हुड्डा पर और जाटों का समर्थन करने के लिए लोकदल पर या हरियाणा के भाजपा सांसद राज कुमार सैनी पर था, जिन्होंने जाटों को आरक्षण का पहले विरोध किया और फिर हिंसा भड़कने के बाद अपना बयान वापस लिया। यों तो केंद्रीय मंत्री बीरेंद्र सिंह जो हरियाणा के मुख्यमंत्री के पद की दौड़ में लंबे समय से हैं, ने भी जाटों का समर्थन किया। सरकार इस जनाक्रोश से निपटने में अपनी नाकामी को ऐसे इल्जामों से बचा नहीं सकती। खट्टर सरकार को न सिर्फ यह समझना होगा कि कमी कहां थी, बल्कि उसे दुरुस्त भी करना होगा। वरना ऐसे हिंसक विरोध आम हो सकते हैं।

इससे पहले रामपाल के आश्रम के बाहर भी सरकारी एजंसियां घुटने टेक चुकी हैं। एक हफ्ते तक ऐसा लगा कि आम लोग के साथ सरकार भी आंदोलनकारियों की बंधक ही है जिसे छुड़ाने के लिए केंद्र सरकार एक के बाद एक नाकाम कोशिश कर रही थी। सरकार के मंत्री और पुलिस अधिकारी अपनी जान बचा कर भाग रहे थे। रोहतक के एक मंत्री ने अपने परिवार को हेलिकॉप्टर से राज्य के बाहर निकाला तो एक आला अधिकारी मौके से किसी तरह चुपचाप भाग निकला। सरकार और प्रशासन ही दहशत में दिखे तो आम आदमी की क्या हस्ती थी! उकसाने वाली प्रतिक्रियाओं ने आंदोलन को और भड़काया। सेना की मौजूदगी में भी हिंसा बढ़ती ही गई। बिना सोच-विचार के सरकार ऐसे समाधान लाई जिसे प्रदर्शनकारियों ने सिरे से नकार दिया। जैसे ही सरकार के झुकने के संकेत आए आंदोलनकारी तो मौके पर फैसला लेने पर अड़ गए।  अब फिर सरकारों का विवेक दाव पर है | एक बार में समाधान निकलता नही, सबकी राजनीतिक मजबूरी है |
  • श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।      
  • संपर्क  9425022703      
  • rakeshdubeyrsa@gmail.com
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