राकेश दुबे प्रतिदिन। बिहार का यह चुनाव शायद भारत का शायद पहला ऐसा चुनाव था, जिसमें आरक्षण सबसे बड़ा मुद्दा बन कर उभरा। इस मुद्दे को चुनाव शुरू होने से पहले से ही उठाया जाने लगा था। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा की आवश्यकता वाले बयान के बाद पूरा चुनाव मुख्य रूप से इसी मुद्दे के आसपास लड़ा गया। कहने को यह कहा जा सकता है कि भागवत जी के बयान का वह मतलब नहीं था, जो समझा गया और इस बारे में संघ ही नहीं, खुद प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि आरक्षण को खत्म करने की किसी भी कोशिश को कामयाब नहीं होने दिया जाएगा। यह भी साफ है कि इस मुद्दे को लेकर महागठबंधन के सवालों का जवाब देने और अपने जवाब से जनता को संतुष्ट करने में राजग सफल नहीं हो पाया। महागठबंधन के नेता लगातार और जान-बूझ कर यह कहते रहे कि संघ और भाजपा आरक्षण को खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं।
इसका जवाब भजपा या संघ के पास तो है पर राजग के पास नहीं। जनता के मन में आरक्षण को लेकर भ्रम पैदा हो गया है, जिसे भाजपा की विरोधी शक्तियां आने वाले दिनों में और बढ़ाने की कोशिश करेंगी। इसलिए आवश्यक है कि सरकार और राजग के स्तर पर स्थिति को स्पष्ट कर दिया जाए कि आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था को कायम रखा जाएगा, या इसमें कोई फेरफार होगा | राजग के दल भी इस विषय पर इतनी स्पष्टता चाहते हैं कि कांग्रेस तथा बाकी दलों को दिखा दे कि वास्तविक सामाजिक न्याय कैसा होना चाहिए।
जरूरत है कि एक श्वेत पत्र केंद्र सरकार लाए। इस श्वेत पत्र में आरक्षण से जुड़े तमाम पहलुओं पर छानबीन करके रिपोर्ट रखी जाए। इस श्वेत पत्र पर राष्ट्रीय बहस हो और उसके हिसाब से नीतियां बनें। इस श्वेत पत्र में निम्नलिखित बिंदुओं का समावेश हो। एक, इस बात की समीक्षा करने का वक्त आ गया है कि पैंसठ साल के आरक्षण के बावजूद केंद्र और राज्य सरकारों की सेवाओं में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व क्यों नहीं हो पाया है? इस बारे में सूचना के अधिकार से मिली जानकारी और तमाम अन्य स्रोत बताते हैं कि आरक्षण की वजह से जितने पद भरे जाने थे, उनमें से आधे या उससे भी कम पद अब तक भरे गए हैं। जाहिर है कि आरक्षण लागू करने में कहीं न कहीं कोई गड़बड़ी हो रही है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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