अशोक बंसल/मथुरा। देश के स्वाधीनता-आन्दोलन में अनेक विस्मयकारी और रोमांचक घटनाएँ घटीं । ऐसी ही एक घटना मथुरा की है, जब अंग्रेज कलेक्टर थौर्नहिल को भारतीय क्रांतिकारियों से अपनी जान बचाने के लाले पड़ गये और मथुरा के एक सेठ की मदद से उसे भेष बदलकर भागना पड़ा।
देश को आजाद कराने की चिंगारी फूट चुकी थी। 14 मार्च 1857 को गुड़गाँव के मजिस्ट्रेट ने मथुरा के कलेक्टर थौर्नहिल के पास खबर भेजी कि हिन्दुस्तानी विद्रोही मथुरा की ओर बढ़ रहे हैं। मथुरा के कलेक्टर ने बहुत से अंग्रेज स्त्री-बच्चों को सुरक्षा की दृष्टि से आगरा भेज दिया। उस समय मथुरा की तहसील के सरकारी खजाने में लगभग साढ़े पांच लाख रुपया था।
गदरकालीन तहसील मथुरा के सदर बाजार के एक भवन में थी। वह भवन आज खण्डहरों की शक्ल में है। दिल्ली से क्रांतिकारियों के आगरा की तरफ कूच करने की खबरें लगातार मिल रहीं थी। थौर्नहिल ने सोचा कि एक लाख रुपया वक्त-जरूरत के लिए रख लिया जाय, बाकी रुपया आगरा में सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया जाय।
ताँबे के सिक्कों से भरे बक्सों को गाड़ियों पर लाद दिया गया। लेफ्टिनेंट बर्टन नाम का फौजी सिक्कों से भरी गाड़ियों की देखरेख के लिए तैनात किया गया। खजाने की सुरक्षा के लिए जवानों की दो कम्पनियाँ लगाई गई थीं। जैसे ही गाड़ियों को आगे बढ़ने का हुक्म दिया गया, एक हिन्दुस्तानी सूबेदार ने लेफ्टिनेंट बर्टन से पूछा- ‘‘खजाना किस ओर जायेगा?’’
‘‘आगरा की ओर’’। बर्टन ने जबाब दिया।
‘‘नहीं दिल्ली चलो’’ सूबेदार दहाड़ा।।
ले0 बर्टन अपना संतुलन खो बैठा। उसके मुँह से निकला ‘गद्दार’। इतना सुनना था कि पीछे खड़े एक हिन्दुस्तानी की बन्दूक ने गोली उगल दी। ले0 बर्टन वहीं पसर गया।
यह घटना 30 मई 1857 की है। सिपाहियों ने तहसील का दफ्तर जला दिया। अंग्रेजों के बंगले भी जला दिये। मथुरा की जेल के दरवाजे तोड़ दिये और सारे कैदी आजाद हो गये। लूटे हुए खजाने के साथ सिपाही दिल्ली की तरफ बढ़े। थौर्नहिल उस वक्त छाता में डेरा डाले था। विद्रोहियों को रोकने के लिए उसने कोशिश की लेकिन नाकामयाब रहा।
कलेक्टर थौर्नहिल ने छाता से मथुरा आना उचित समझा लेकिन वह अपने बँगले में घुसने का साहस न जुटा सका। वह विश्रामघाट पर अपने शुभचिंतक सेठ लक्ष्मीचंद की हवेली(द्वारिकाधीश मंदिर के सामने) में कई दूसरे अंग्रेजों के साथ चला गया।
सेठजी की हवेली में रहते हुए थौर्नहिल को खबर लगी कि विद्रोहियों की फौज मथुरा में आ रही है। थौर्नहिल सेठ लक्ष्मीचंद के यहां असुरक्षित अनुभव करने लगा। तब सेठजी के कहने पर थौर्नहिल ने एक ग्रामीण का भेष धरा और सेठजी के एक विश्वस्त नौकर दिलावार खां के साथ पैदल ही आगरा की तरफ चल दिया। जब वे औरंगाबाद पहुँचे तो वहाँ पहले से मौजूद क्रांतिकारियों के घेरे में खुद को पाकर घबड़ा गये।
क्रांतिकारियों को शक हुआ, लेकिन दिलावर खाँ की बुध्दमानी के कारण थौर्नहिल का असली रूप कोई न पहचान सका। आगरा पहुँच कर थौर्नहिल ने चैन की सांस ली। क्रांतिकारियों का कई दिनों तक मथुरा पर कब्जा रहा लेकिन अंग्रेजी फौज के आने पर क्रांतिकारी भाग खड़े हुए, कई पकड़े गये। इन्हें अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया। इनमें राया के राजा देवी सिंह का नाम प्रमुख है। देवी सिंह के वंशज आज मौजूद है और अपने पूर्वज को याद संजोए हुए हैं। आप कभी राया होकर गुजरें तो ठाणे के बाहर राजा देवीसिंह के नाम का पत्थर दिखाई दे जायेगा।
गदर के बाद थौर्नहिल ने दिलावर खां के अहसान को, वृन्दावन रोड पर जमीन का एक टुकड़ा देकर चुकाया। सेठजी को इनाम बतौर मथुरा में यमुना किनारे जमीन मिली। यह जमीन यमुना बाग के नाम से मशहूर है। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में यमुना बाग की जमीन रिहाइशी काॅलोनी में तब्दील हो गई। सेठ के वंशजों ने इस काॅलोनी में प्लाट बना बनाकर ऊँचे दामों पर बेच दी और खूब दौलत बटोरी।
गदर के दमन के बाद थौर्नहिल ने अपने मददगार हिन्दुस्तानियों को खूब धन-दौलत इनाम में बाँटी। ले0 बर्टन की याद में उसकी कब्र भी बनवाई। आज मथुरा के सदर बाजार में यमुना किनारे ले0 बर्टन की कब्र गुम हो गई है। मथुरा में गदर की यही एकमात्र निशानी थी। इस किस्से को सुनाने के बाद विचार आया कि गद्दार और वफादार ऐसे दो शब्द है जिनको कलेजे से लगाने वाले हर युग में रहे है।