भोपाल। 'दूर-दूर जब गांव में जब कोई बच्चा रहता है, तो मां कहती है, सो जा बेटा नहीं तो गब्बर आ जाएगा..।' अपना खौफ दिखाने को गब्बर सिंह यह डायलॉग बोलता है और सिनेमा हॉल तालियों से गूंज उठता है। मगर, असली गब्बर सिंह बॉलीवुड के गब्बर (अमजद खान) से ज्यादा खतरनाक था। एक अंधविश्वास ने उसे इतना ज्यादा क्रूर बना दिया था कि चंबल में उसकी दशहत के शोले सच में दहकते थे।
1970 में फिल्म शोले रिलीज हुई। उसका हर पात्र बेजोड़ था, लेकिन अभिनेता अमजद खान ने डाकू गब्बर सिंह का जो जीवंत अभिनय किया, वह फिल्म का थ्री-डी प्रिंट रिलीज होने तक जेहन में बसा हुआ है। इसके साथ ही अब शांत हो चुके चंबल के बीहड़ में 1950 के दशक की दहशत का दौरा यादों में ताजा हो चुका है। जिस गब्बर सिंह को पहले लोगों ने काल्पनिक पात्र समझा था, हकीकत में वह चरित्र पात्र था। क्रूरता के पर्याय बन चुके गब्बर पर उप्र और मप्र सरकार ने क्रमश: 50-50 हजार रुपये, जबकि राजस्थान सरकार की ओर से 10 हजार रुपये का इनाम घोषित था।
भिंड के डांग गाव में 1926 को जन्मा गब्बर सिंह स्वभाव और कर्म से तो कुख्यात था ही, अंधविश्वास ने उसे और अधिक क्रूर बना दिया था। बताया जाता है कि एक तांत्रिक ने उससे कह दिया था कि अगर वह 106 व्यक्तियों की नाक काट कर अपनी इष्ट देवी को चढ़ाएगा तो पुलिस उसका एंकाउंटर नहीं कर सकेगी। उसके बाद से चंबल नदी के दोनों ओर के गांवों में हत्याओं के अलावा नाक काटने की घटनाएं होने लगीं।
मचहौरी, भाकर, चमौदी, चिरनास्त आदि के क्रूरता पीड़ित जब भोपाल (मप्र) जा पहुंचे, तो विरोधी दल के नेताओं ने हंगामा कर दिया। इससे तत्कालीन मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू के लिए राजनीतिक संकट पैदा हो गया। इसी बीच गब्बर ने अपनी मुखबिरी के मामले में गोहद विकासखंड के एक गांव में 21 बच्चों की लाइन लगवाकर हत्या कर दी। इस घटना से दिल्ली में बैठी नेहरू सरकार भी हिल गई। बच्चों में चाचा की छवि रखने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मप्र के तत्कालीन पुलिस प्रमुख को बुलाकर कहा था कि गब्बर के गैंग का सफाया किया जाए। बताया जाता है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री काटजू से भी उन्होंने इस मामले पर गंभीरता जताई थी। उसके बाद काटजू ने जब भी पुलिस अधिकारी मिलते, वह यही कहते- 'मुझे गब्बर चाहिए। चाहे मरा या जिंदा।'
अपने समय के प्रख्यात पत्रकार एवं सांसद जया भादुड़ी के पिता तरुण कुमार भादुड़ी ने यह समूचा घटनाक्रम नजदीकी से देखा था। बाद में जब शोले फिल्म की शूटिंग हुई तो इसके निर्माण में उनकी सक्रिय भूमिका रही। उन्होंने ही डायलॉग सुझाया था- 'मुझे गब्बर चाहिए। चाहे मरा या जिंदा..।' इस डायलॉग को संजीव कुमार ने स्वयं काफी पसंद किया था।
डीएसपी राजेंद्र प्रसाद मोदी ने किया था एनकाउंटर
एक पुलिस वाले को मारना गब्बर सिंह को सबसे महंगा पड़ा। इस कृत्य के बाद से तो वह पुलिस के निशाने पर आ गया था। गब्बर सिंह के खात्मे का जिम्मा मप्र स्पेशल आर्म फोर्स के 26 वर्षीय डिप्टी सुपरिटेंडेंट आरपी मोदी ने लिया। उनके लिये सबसे मुश्किल काम था दस्यु प्रभावित क्षेत्र में मुखबिर तंत्र खड़ा करना, क्योंकि वहां गब्बर की दहशत से लोग पुलिस से दूरी बनाते थे।
तभी एक घटना घटी, जिससे अचानक ही ये दूरियां खत्म हो गई। गांव के एक मकान में आग लग गई। शेखर नाम का एक बच्चा भी उसमें फंस गया। डीएसपी मोदी को सूचना मिली, तो वह पहुंचे और आग से घिरे घर में घुसकर शेखर को सुरक्षित निकाल लाए। इसके बाद से गांव वालों में उनकी छवि एक बहादुर इंसान की बन गई।
देखते ही देखते ग्रामीण उनके करीब आ गए। एक दिन गोहद के ही जगन्नाथ का पुरा गांव के मझरे गौम का पुरा में स्पेशल आर्म फोर्स ने श्री मोदी के नेतृत्व में 1959 में घेराबंदी कर गब्बर सिंह का एनकाउंटर कर दिया। इसमें जगत सिंह, रामदुलारे सहित गैंग के अन्य 9 डकैत भी मारे गए थे।
इसलिए चंबल में नहीं हुई फिल्म की शूटिंग
गब्बर सिंह पर बनी फिल्म शोले की की शूटिंग चंबल से कहीं दूर बेंगलुरू के रामगढ़ गांव में हुई थी। इसका कारण यह था कि बीहड़ उस समय अशांत था। मान सिंह, पुतली बाई जैसे दुर्दात डकैतों के गैंग बीहड़ में सक्रिय थे। ऐसे में आज की तरह उसमें फिल्मांकन संभव ही नहीं था।