बेहाल सूचनाएं और अधिकार

राकेश दुबे@प्रतिदिन। एक अधकचरी खबर हवा में तैर रही है कि श्रीमती जसोदा बेन नरेंद्र भाई मोदी द्वारा मांगी गई सूचना ने एस पी जी प्रमुख के. दुर्गाप्रसाद को पद मुक्त करा दिया| लगता नहीं है ऐसा हुआ होगा, क्योंकि जिस सूचना के अधिकार को लेकर भारत में बड़ी-बड़ी बातें होती है वह कितनी बुरी हालत में इसका अंदाज़ा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि देश के केन्द्रीय सूचना आयोग के कार्यालय में दस हजार से अधिक मामले लम्बित हैं और मुख्य सूचना आयुक्त का पद महीनों से खाली है|

बाईस अगस्त को सीआइसी के पद से राजीव माथुर सेवानिवृत्त हुए थे।तब अर्थात तेईस अगस्त को सात हजार छह सौ अट्ठावन मामले लंबित थे। तीन महीनों में इनकी तादाद बढ़ कर दस हजार से ऊपर पहुंच गई।

हमारी अदालतों में जो स्थिति है वैसी ही सूचना आयोगों में भी होती जा रही है। जजों के बहुत-से पदों का रिक्त होना न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति का एक प्रमुख कारण है। यही बात सूचना आयोगों पर भी लागू होती है। पर इसके साथ कुछ और भी समस्याएं हैं। सूचना आयुक्तों के पास पर्याप्त कर्मचारी नहीं होते। अपीलों के निपटारे की प्रक्रिया पर इसका नकारात्मक असर पड़ता है। फिर, सभी कर्मचारी अपने काम में दक्ष और कानून के जानकार नहीं होते।

लंबित मामलों की तादाद में बढ़ोतरी की एक और खास वजह यह हो सकती है कि सूचना देने से इनकार या आनाकानी करने वाले अधिकारियों में अभी यह भाव नहीं आ पाया है कि वे दंडित किए जा सकते हैं। यों सूचनाधिकार कानून के तहत दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान है, पर कई अध्ययन बताते हैं कि ऐसे मामलों की संख्या नगण्य है जिनमें इस प्रावधान का उपयोग हुआ हो। बहरहाल, सूचनाधिकार कानून को भ्रष्टाचार से लड़ने के एक कारगर हथियार के रूप में बचाना है तो यह जरूरी है कि सूचना आयोगों की शक्ति और संसाधन, दोनों में इजाफा हो।

लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com


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