उत्तराखंड: यह तो लोकतंत्र नहीं है

राकेश दुबे@प्रतिदिन। कल उत्तराखंड में होने वाली विधानसभा की विशेष बैठक देश की राजनीति में एक नया कीर्तिमान बनाएगी। उत्तराखंड की जिस मौजूदा विधानसभा पर अपने दल की मुहर लगाने को कांग्रेस और और भाजपा सब कुछ करने को तैयार है, उसकी उम्र बहुत ज्यादा नहीं बची है। कुल जमा दस महीने। उसके बाद जनादेश के लिए जनता के पास जाना ही था, तब पिछले पांच साल तक राज्य में चली राजनीति के लिए दंड और पुरस्कार देने का काम प्रदेश की जनता खुद कर लेती। जनता का धैर्य लंबा होता है, उसके लिए दस महीने कोई बहुत लंबा समय नहीं है। अपना फैसला सुनाने के लिए वह इतना इंतजार कर सकती थी। इसके विपरीत राजनीति करने वालों के लिए दस महीने बहुत लंबा समय होता है। उनमें इतने लंबे इंतजार का धैर्य नहीं। इसलिए पलड़ा तुरंत अपनी ओर झुकाने की कोशिश में उन सबने राज्य का राजनीतिक संतुलन बिगाड़ दिया है। जो लड़ाई कुछ ही महीने बाद जनता की अदालत में लड़ी जानी थी, अब वह केंद्र सरकार के दरबार, राजभवन और राष्ट्रपति भवन व कोर्ट में लड़ी जा रही है। इस लड़ाई में प्रदेश की जनता की कोई भूमिका नहीं, भूमिका तो उस विधानसभा की भी नहीं है, जिसे उत्तराखंड की जनता ने चुना था।

नई सरकार बनाने की संभावनाएं अब भी बरकरार हैं। कांग्रेस के बागी विधायकों की सदस्यता समाप्त हो जाने के बाद सदन का अंकगणित फिर कांग्रेस-पीडीएफ के पक्ष में आ गया है। कुल 70 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस के नौ बागी विधायक सदन के सदस्य नहीं रहे। अब सदन की संख्या 61 रह गई है। ऐसे में, कांग्रेस के 27 और पीडीएफ के छह विधायकों को मिलाकर हरीश रावत को कुल 33 विधायकों का समर्थन प्राप्त है। कांग्रेस के पास एक मनोनीत विधायक भी है। भाजपा के कुल 28 विधायक हैं। हरीश रावत कांग्रेस के 27 और पीडीएफ के छह विधायकों को लेकर राज्यपाल से मिले थे । रावत का दावा अब तक 33 विधायकों को साथ रखने का हैं। तत्काल ऐसा लगता नहीं, पर उनको सांविधानिक व्यवस्था के अनुसार मौका दिया जा सकता है। कांग्रेस राजभवन और अदालत, दोनों स्तरों पर इस लड़ाई को लड़ रही है। अदालत से कांग्रेस को अपने पक्ष में फैसला आने का भरोसा था और अब भी है |कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई का फायदा उठाकर हरीश रावत को सत्ता से बेदखल करने वाली भाजपा लगता नहीं कि सरकार बनाने के लिए जल्दी सक्रिय होने की हिम्मत करेगी। इसका कारण उसका अपना डर है। उसके यहां कुरसी की लड़ाई कांग्रेस से कम नहीं है। भाजपा में आज मुख्यमंत्री पद के कम से कम पांच बड़े उम्मीदवार हैं। इनमें तीन तो पूर्व मुख्यमंत्री ही हैं- भगत सिंह कोश्यारी, रिटायर्ड मेजर जनरल बीसी खंडूड़ी और रमेश पोखरियाल निशंक। आपसी  खींचतान का आलम यह है कि भाजपा मुख्यमंत्री के उम्मीदवार का फैसला करना तो दूर, नेता प्रतिपक्ष का फैसला भी नहीं कर पा रही। ऐसे में, इनमें से किसी एक को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाते ही विधायक दल में फूट का खतरा है।

अब गेंद विधान सभा और कोर्ट के पाले में है. मतों की गिनती और कोर्ट का निर्णय जनता द्वारा चुनी सरकार भविष्य तय करेगा। यह कौनसा लोकतंत्र है ?

श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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