राकेश दुबे@प्रतिदिन। केंद्र सरकार फिर उच्च शिक्षा में कुछ नया करने के मंसूबे बांध रही है, तो इस विशाल, अभूतपूर्व अभियान के उद्देश्य क्या हैं? प्रस्तावित नई नीतियां मौजूदा उच्चशिक्षा व्यवस्था की किन कमियों-खामियों को दूर करेंगीं? इन सवालों के सीधे जवाब तो नहीं मिलते, लेकिन सरकारी आदेशों और दस्तावेजों से जो निहित उद्देश्य सामने आते हैं उनमें प्रमुख हैं एकरूपीकरण, केंद्रीयकरण और आधिकारिक नियंत्रण।
सुधारवादी अभियान का सबसे स्पष्ट और प्रबल आग्रह है उच्चशिक्षा का एकरूपीकरण। यह महज पाठ्यचर्या (करीकुलम) के मानकीकरण तक सीमित नहीं, बल्कि पाठ्यविवरण (सिलेबस) के समानीकरण की मुहिम है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा मानव संसाधन मंत्रालय के निर्देशानुसार जारी किए गए आदेश के मुताबिक हर विषय के स्नातकीय (बीए, बीएससी, बीकॉम आदि) पाठ्यविवरणों में अस्सी प्रतिशत सामग्री पूरे देश में एक समान होगी, और इसे निर्धारित करने का अधिकार केवल आयोग के पास होगा। बाकी बीस प्रतिशत पाठ्यसामग्री को विश्वविद्यालय अपने स्तर पर बना सकते हैं।
इसके साथ ही परीक्षण प्रणाली को भी देश भर में समान बनाने का प्रस्ताव है- अब प्रतिशतांक के बदले ग्रेड दिए जाएंगे। समानता लाने के पीछे घोषित लक्ष्य है- सारे देश के उच्च शैक्षणिक संस्थानों में छात्रों की निर्बाध आवाजाही कायम करना। उदाहरण के तौर पर एक छात्रा ने अगर स्नातक पाठ्यक्रम का पहला वर्ष केरल के किसी विश्वविद्यालय से किया है, तो वह दूसरे-तीसरे वर्ष की पढ़ाई के लिए केरल से बाहर देश के किसी भी विश्वविद्यालय में बिना रोक-टोक प्रवेश पा सकेगी।
भारतीय उच्च शैक्षणिक व्यवस्था से परिचित कोई भी व्यक्ति तुरंत समझ सकता है कि यह तुगलकी मिजाज की नीति है, जिसका जमीनी वास्तविकताओं से कोई वास्ता नहीं। छात्रों की मनमाफिक आवाजाही के आड़े आने वाला सबसे बड़ा बाधक पाठ्यविवरण की विविधता नहीं, बल्कि चहेते विषयों और संस्थानों में जगह की कमी और इस तंगी से उत्पन्न गला-काट स्पर्धा है। इस सूरत में जो भी नीति प्रमाणित गुणवत्ता वाले शैक्षणिक संस्थानों के अभाव से जूझने का प्रयास न करे वह अप्रासंगिक बनने को अभिशप्त रहेगी। एकरूपीकरण अभियान निरर्थक ही नहीं, नुकसानदेह भी होगा, क्योंकि सबके लिए अनिवार्य मानक औसत या बहुसंख्यक संस्थानों की क्षमता को ध्यान में रख कर तय किए जाएंगे और कुशल संस्थानों को औसत की ओर घसीटा जाएगा।
समान सिलेबस से उत्तम संस्थानों को तो क्षति पहुंचेगी ही, औसत संस्थानों का भी भला नहीं होगा, क्योंकि उनकी समस्या उचित मानकों का अभाव नहीं, बल्कि इन मानकों पर अमल करने की क्षमता और संसाधनों की कमी है। ढेर निजी विश्व विद्ध्यालय भी है उनका क्या होगा | उनका दावा भरी फीस पर उत्तम शिक्षा है |
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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