पढ़िए क्या है दिग्विजय सिंह का (USP) Unique selling proposition

नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ बनारस से कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में जिन लोगों के नाम पर अटकलें लगाई जा रही थीं उनमें दिग्विजय सिंह सबसे आगे थे लेकिन पार्टी ने मोदी के ख़िलाफ़ अजय राय को उतारने का फ़ैसला किया है.

दिग्विजय भले ही मोदी के ख़िलाफ़ नहीं उतर रहे हैं लेकिन सांप्रदायिकता के विरुद्ध अपनी आक्रामकता के चलते कांग्रेस ही नहीं बल्कि भारतीय राजनीति में भी उनकी ख़ास पहचान और प्रासंगिकता स्थापित हो चुकी है.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने आरोप लगाया कि चरमपंथी घटनाओं में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोग शामिल हैं और वह अपने इस आरोप पर लगातार कायम हैं.

मुंबई हमले में हेमंत करकरे का मसला हो या 'बाटला हाउस' प्रकरण, दिग्विजय ने बेबाक़ी से अपना पक्ष रखा है. नक्सली समस्या पर अपनी ही सरकार के गृहमंत्री पी चिदम्बरम के विचारों को उन्होंने लेख लिखकर ख़ारिज किया.

संघ पर की गई अपनी टिप्पणियों पर सुशील कुमार शिंदे और पी चिदंबरम को पीछे हटना पड़ा लेकिन दिग्विजय अपने बयानों को लेकर कभी भी माफ़ी की मुद्रा में नहीं आए. यही उनकी सबसे बड़ी ताक़त है जिसके चलते कांग्रेस में उनकी अलग अहमियत बनी हुई है. हालांकि यही ताक़त कई बार इनके लिए और पार्टी के लिए गले की हड्डी बनी है.

इस तरह की अतिरेक बयानबाज़ी का ख़मियाज़ा पार्टी के साथ-साथ उनको भी भुगतना पड़ा है. इसके बावजूद वह इस तरह की 'बेमौसम बरसात' से बाज़ नहीं आते दिखे हैं. उन्हें क़रीब से जानने और पहचानने वालों का मानना है कि यह तौर तरीक़ा उन्होंने ख़ासतौर पर अपनाया है.

मध्यप्रदेश से दिल्ली तक

केंद्र में दस बरस के शासन को लेकर कांग्रेस जहां आज बचाव की मुद्रा में नज़र आती है वहीं अपने दस बरस के मुख्मंत्रित्वकाल को लेकर दिग्विजय कभी माफ़ी मांगते नजर नहीं आए जबकि मध्यप्रदेश में कांग्रेस की हार के लिये उनके शासनकाल की नाकामियों को ज़िम्मेदार माना जाता रहा है.

मध्यप्रदेश मे चुनाव हारने के बाद बिना माफ़ी मांगे संन्यास की घोषणा ने राज्य में कांग्रेस का काफ़ी नुक़सान किया. शायद इसीलिए ये कहना ग़लत नहीं होगा कि उस मुद्दे पर उनमें राजनीतिक नेता की चतुराई की कमी दिखाई दी. उस वक़्त संन्यास के बजाए उन्हें अपनी हार को मानते हुए मतदाताओं के पास दोबारा जाना चाहिए था.

उनके इस तरह से संन्यास की घोषणा को त्याग नहीं पलायनवादिता ही कहा जा सकता है जिसका नतीजा है कि मध्यप्रदेश में काग्रेंस की अब तक वापसी नहीं हो पाई है लेकिन दिग्विजय के धुर विरोधी भी उनकी मिसाल कुछ बातों पर ज़रूर देंगे.

साल 1977 की धुर कांग्रेस विरोधी लहर में भी वह पहली बार विधानसभा का चुनाव जीत कर कांग्रेस के विधायक निर्वाचित हुए.

बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद हुए दंगों के कारण बर्ख़ास्त की गई भाजपा सरकार के कार्यकाल के बाद राष्ट्रपति शासन के दौरान दिग्विजय मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने और 1993 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला. तब कांग्रेस विधायक दल के नेता और तीन बार मुख्यमंत्री रहे श्यामाचरण शुक्ल को मतदान में पराजित कर वह मुख्यमंत्री बने थे.

जीत और हार का रिकॉर्ड

दस साल तक लगातार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने रहने का इतिहास उन्होंने रचा तो साल 2003 के विधानसभा चुनाव में अब तक की सबसे कम सीटों (230 में 38) के साथ सत्ता से बाहर होने का भी अनचाहा रिकॉर्ड भी बनाया.

प्रदेश की राजनीति से दूर होते हुए उन्होंने दिल्ली में अपना डेरा डाला और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव के रूप में अपनी नई पारी की शुरुआत की.

महासचिव तो एक दर्जन और हैं लेकिन अपने आपको केवल अपने प्रभार वाले राज्य तक सीमित न करते हुए वह कांग्रेस के ऐसे अघोषित प्रवक्ता बन गए जो हर मुद्दे पर अपनी फौरी प्रतिक्रिया देते हुए संघ और भाजपा पर तीखा हमला करे.

कई बार कांग्रेस पार्टी ने उनके बयानों से किनारा भी किया लेकिन उन्हें सार्वजनिक बयानबाजी से कभी नहीं रोका. राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनवाने की पहले-पहल वकालत उन्होंने ही की और वह राहुल गांधी के गुरु या सलाहकार भी माने जाने लगे.

कांग्रेस पार्टी में वैसे बड़े नेताओं की कमी है जो खुलकर बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रहार करता रहे, दिग्विजय सिंह इस कमी को बखूबी पूरा करते हैं और पार्टी इसके लिए उनका सहारा भी लेती रही है.

दिग्विजय सिंह की ख़ास शैली ने मीडिया में सुर्ख़ियां भी खूब बटोरीं और एक बड़े राष्ट्रीय राजनेता की हैसियत भी. लिहाज़ा कांग्रेस के बाहर भी उनके क़द का लोहा माना जाने लगा.

दिग्विजय सिंह के पार्टी के भीतर विरोधियों की भी कभी कमी नहीं रही लेकिन उन्होंने कभी पार्टी के भीतर अपने विरोधियों पर पलटवार नहीं किया.

सांप्रदायिकता का मुक़ाबला

2014 के लोकसभा चुनाव को लेकर उनकी स्पष्ट मान्यता है कि यह चुनाव पार्टियों या नेताओं के बीच नहीं विचारधारा के बीच लड़ा जा रहा है. वो कहते रहे हैं कि कट्टर सांप्रदायिकता का मुक़ाबला इस चुनाव में किया जाना है और उसे परास्त करना है.

लेकिन राजनीतिक सफ़र की रिपोर्ट कार्ड में कुछ बातें उन्हें ज़रूर अखरती रहेंगी. मसलन उत्तर प्रदेश का प्रभारी रहते हुए पार्टी की लगातार चुनावी विफलता, आंध्र प्रदेश के प्रभारी के रूप में तेलंगाना मुद्दे पर पार्टी का कबाड़ा करने और अपने ही राज्य मध्यप्रदेश में लगाातर तीन बार चुनावों में भाजपा के हाथों कांग्रेस की पराजय.

पर इन सब के बाद भी दिग्विजय सिंह पार्टी में महत्वपूर्ण बने हुए हैं. इसके पीछे उनकी राजनीतिक चतुराई के साथ-साथ सोनिया-राहुल के प्रति वफादारी और सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ जमकर लोहा लेने की उनकी विचारधारात्मक सक्रियता रही है.

कुछ माह पहले मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी की सभा में दिग्विजय सिंह ने अपने आपको डूबता सूरज कहकर सबको चौंका दिया.

क्या है रणनीति

इसके पीछे उनकी क्या रणनीति थी, यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता लेकिन इतना तो उनको भी समझ में आता है कि पार्टी में वह जिस मुक़ाम पर पहुंच गए हैं वह उनका आख़िरी पायदान है, उसके आगे या ऊपर जाने की कोई गुंजाइश वह नहीं देख सकते.

अपने आपको प्रासंगिक बनाए रखने की कला में माहिर दिग्विजय सिंह अपनी राय सार्वजनिक करने का कोई मौका नहीं चूकते. पार्टी में उनकी पकड़ को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि लोकसभा चुनाव के ठीक पहले वह ख़ुद राज्यसभा में पहुंच गए.

उसके पहले अपने भतीजे आदित्य विजय सिंह को नगर पालिका का अध्यक्ष और बेटे जयवर्धन सिंह को कांग्रेस का विधायक बनवा दिया तो अपने भाई लक्ष्मण सिंह को भाजपा से इस्तीफ़ा दिलवाकर लोकसभा चुनाव में विदिशा से कांग्रेस का उम्मीदवार बनवा दिया.

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