राकेश दुबे@प्रतिदिन। चुनाव के दौरान देश में शोर मचा हुआ है की कौन सा उद्द्योगपति किस राजनीतिक दल को क्या दे रहा है? दबे स्वर में पार्टियों द्वारा टिकट बेचने की बात भी उठ रही है और चुनाव ठीक-ठाक हो उसमें खर्च राशि का हिसाब ठीक हो,इसके प्रयास भी हो रहे हैं| इन सब सवालों की जद में एक सवाल है,ईमानदारी| वह पूरी तरह गायब दिखती है|
अब लोकसभा उम्मीदवार के लिए खर्च की सीमा सत्तर लाख कर दी गई है। अलबत्ता गोवा, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम जैसे छोटे राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों अंडमान निकोबार, चंडीगढ़, दादरा एवं नगर हवेली, दमन एवं दीव, पांडिचेरी और लक्षद्वीप में लोकसभा उम्मीदवार के लिए बढ़ी हुई खर्च सीमा ५४ लाख रुपए होगी।
इसी तरह असम को छोड़ कर पूर्वोत्तर और पांडिचेरी में विधानसभा उम्मीदवार अब बीस लाख रुपए तक खर्च कर सकेंगे, जबकि बाकी देश में विधानसभा प्रत्याशियों को २८ लाख रुपए तक खर्च कर सकने की इजाजत होगी। खर्च-सीमा बढ़ाने के पीछे कई तर्क थे। एक यह कि मतदाताओं की संख्या बढ़ी है और इसी के साथ मतदान केंद्रों की भी। दूसरे, प्रचार सामग्री सहित तमाम चीजों की लागत बढ़ गई है। सवाल यह है कि क्या इस बढ़ी हुई खर्च-सीमा के बाद चुनाव प्रचार में पारदर्शिता आएगी और उम्मीदवार अपने खर्चों का सही ब्योरा देंगे? इसकी उम्मीद बहुत कम है।
पूरा देश चुनाव प्रचार की मार से गुजर रहा है| भरी भरकम हाई-टेक संसाधनों से बनाई जा रही इस हवा में जो करोड़ों रूपये छोटे-बड़े दल खर्च कर रहे हैं इसकी उत्पत्ति के स्रोत का पता लगाना जरूरी है| ये स्रोत बाद में गैस, बिजली,कोयला ,और अन्य कई घोटालो में बदल जाते हैं और अहसान तले दबे राजनीतिक दल और उसके प्रतिनिधि वह सब करते हैं,जो नहीं करना चाहिए या देश हित में नहीं है|
चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने का एक दूसरा अर्थ यह भी निकलता है,कि व्यवस्था स्वीकारती है की इससे कम में चुनाव नहीं हो सकता| अब या तो सदन धनवानों के होंगे या कर्जदारों के| ईमानदारों के वैसे भी अभी है नहीं, और आगे की सम्भावना बिलकुल नगण्य है|
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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