राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश का रुपया अन्तिम सांसे गिन रहा है |शेयर बाज़ार बदहवास हो गया है | देश के तीन धुरंधर अर्थशास्त्री लाचार नजर आ रहे और अब इस सबके लिए भारत के राष्ट्रपति और पूर्व वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी को दोष दे रहे है, पहले उनका निशाना एन डी ए होता था |
तेल कम्पनियां सरकार को दाम बढ़ाने के लिए चिट्ठी पर चिठ्ठी लिख रही है सरकार मर्ज़ की दवा तो खोज नहीं पा रही है और महामारी को आमन्त्रण जरुर दे रही है | 2014 में बनने वाली सरकार चाहे जिसकी भी हो उसे बुरे दिन देखने होंगे| आज देशवासी यह सोचने पर मजबूर है कि जाने किस घड़ी में हमने विदेश में पढे-लिखे इन तीन अर्थ[अनर्थ]शास्त्रियों के हाथ में देश सौंप दिया |
देश में अब तक जितने प्रधानमंत्री हुए, उनमे एक मोरारजी देसाई ही ऐसे प्रधानमंत्री हुए है जिनके राज्य में रुपया मजबूत हुआ और जिस प्रधानमंत्री के राज्य में रूपये को सबसे बुरे दिन देखने पड़ रहे हैं वे देश के पूर्व वित्त मंत्री और विश्व विख्यात अर्थशास्त्री और वर्तमान प्रधानमंत्री है | देश का दुर्भाग्य सरकार हकीकत बताने को तैयार नहीं है | बेहतर होता कि मनमोहन सिंह १५ अगस्त को लालकिले की प्राचीर से खानदान विशेष के कसीदे पढने की जगह देश वासियों को बताते कि नागरिक क्या करे और क्या न करे| जिससे देश की माली हालत में सुधार हो |
पूंजी निवेश का राग बंद कर पूंजी नियोजन के बारे में गंभीरता से सोचना होगा | अर्थशास्त्र मेरा विषय नही रहा है पर मोटी बुद्धि से तीन बातें समझ में आती हैं| पहली- न्यूनतम और जरूरी आयात नीति का कड़ाई से पालन, दूसरी- विदेश से पौंड,डॉलर जैसी मुद्रा लाने पर न्यूनतम कर, तीसरी-निर्यात शुल्क में कमी और नवीन आयामों की स्थापना | इसके अतिरिक्त पेट्रोल और डीजल की खपत कम करने के जरूरी और प्रभावी उपाय | शायद इन्हें अपनाने के बाद सोना बेचने की जरूरत नहीं पड़े |
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रख्यात स्तंभकार हैं।
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