मप्र चिकित्सा शिक्षा: आपस में लो बाँट

BHOPAL: मध्यप्रदेश में जो हो जाये कम है। अब स्वास्थ्य सेवाओं का महकमा फिर से मेडिकल कालेज से जुड़ता दिख रहा है। पहला प्रयोग सागर में होने जा रहा है, जिसके खिलाफ आन्दोलन हो रहा है। मध्यप्रदेश सरकार या तो संविधान के अनुच्छेद ४७ को समझी नहीं है या उसकी धज्जियां उड़ने पर उतारू है। पहले मेडिकल कालेज स्वास्थ्य विभाग के अंतर्गत होते थे अब स्वास्थ्य विभाग के अमले को मेडिकल कालेज के अंतर्गत करने के प्रयोग किये जा रहे हैं। व्यापमं के गडबड़ झाले के पीछे ऐसे ही दिमाग है, जो कभी स्वास्थ्य विभाग में होते हैं तो कभी मेडिकल कालेज में अपनी सुविधा के अनुरूप दुर्भाग्य से  ऐसे लोगों को न्यायिक सहारा भी मिल जाता है।इस सारी पहेली की जड़ चिकित्सा शिक्षा विभाग का बनना है। 

पहले प्रदेश में स्वास्थ्य विभाग एक ही हुआ करता था। वो ही शैक्षणिक और चिकित्सीय दोनों व्यवस्था संभालता था। कई निजी मेडिकल कालेजों में अपनी भागीदारी रखने वाले एक बड़े नेता ने प्रयास करके स्वास्थ्य विभाग और चिकित्सा शिक्षा विभाग को पृथक कराया। वर्तमान में निजी चिकित्सा महाविद्यालयों और निजी दंत चिकित्सा महाविद्यालयों के प्रत्यक्ष और प्रछन्न कर्ता धर्ताओं पर नजर डाले तो हर जगह  रसूखदार ही मिलेंगे। इन रसूखदारों के दबाव के कारण सरकार खुद दूसरा दंत चिकित्सा महाविद्यालय प्रदेश में नहीं खोल सकी। इंदौर में एक है, बस।

निजी मेडिकल कालेज और उनमे प्रवेश की कथा जग जाहिर है। व्यापम घोटाले के दौरान जो चिकित्सा शिक्षा के जिम्मेदार मंत्री, क्लीन चिट लिए घूम रहे है और उनके आसपास की मंडली “सैयां भये कोतवाल अब डर कहे का” गाना गा रही है। सच तो यह है कि चिकित्सा विभाग में सहायक शल्य चिकित्सक की नौकरी प्राप्त करने वाले जैसे तैसे कैसे भी किसी मेडिकल कालेज से जुडकर तबादला जैसी प्रक्रिया से मुक्त हो जाते है। ऐसे लोगों को निरापद और मलाईदार पोस्टिंग चिकित्सा शिक्षा विभाग में रास आती है और व्यापम जैसी परीक्षा के बाद इसी विभाग में काउंसलिंग के सारे खेल तमाशे चलने लगते हैं।

प्रदेश चिकित्सा शिक्षा के नाम सरकारी अस्पतालों  को नये बन रहे सरकारी मेडिकल कालेजों से सम्बधता ऐसा ही खेल है। किसी न किसी रसूखदार को खुश करने के लिए किसी चिकित्सीय दिमाग का खेल है। संविधान में वर्णित सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार का लक्ष्य तो ऐसे लोग पहले ही बलि चढ़ा चुके हैं। मेडिकल काउन्सिल आफ इण्डिया के निरीक्षण की कहानियाँ भी जग जाहिर हैं। मध्यप्रदेश में स्वास्थ्य शिक्षा और अस्पताल से जुड़ना लाभ का धंधा बन चुका है, खूब कमाओ की नीति अपनाने वाले इस धंधे से नीचे से उपर तक जुड़े हैं। दोनों प्रमुख राजनीतिक दल इस गंगा में एक ही घाट पर हैं। इस सब में एक और साम्य है “सारी दीखे जात तो आपस लीजे बाँट” आम नागरिक की सुविधा क्या है? एक और  लच्छेदार भाषण बस। 

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