सेना आंतरिक सुनवाई की व्यवस्था को निरापद बनाये

राकेश दुबे@प्रतिदिन। हमारी सीमाओं, दुर्गम इलाकों और खास जोखिम भरे मौकों पर मुस्तैदी से सेवा देने वाले सैन्य बलों के जवानों का अपनी मुश्किलें लेकर सार्वजनिक मंच या सोशल मीडिया पर आना या विपरीत हालात में अपने ही साथियों को खतरे में डाल देना चिंता का विषय है। जिस तरह चंद रोज पहले बीएसएफ के जवान ने, और फिर सीआरपीएफ के एक जवान ने अपनी मुश्किलें वीडियो के जरिये सार्वजनिक कीं, और अब एक जवान ने अपने ही साथियों पर मैगजीन खाली कर दी, उसने कई सवाल उठाए हैं। 

ये सवाल उनकी दुश्वारियों, उनकी सहनशीलता और अुनशासन को लेकर भी हैं। हमारे सैन्य बलों के आंतरिक सिस्टम और अनुशासन पर भी। यहां सेना प्रमुख बिपिन रावत से असहमत होने का कोई कारण नहीं है कि जवानों को अपनी बात सोशल मीडिया और मीडिया में लाने की बजाय आंतरिक मंचों पर उठानी चाहिए। उनके अनुसार सेना मुख्यालय और अन्य सभी कमांड परिसरों में सुझाव और शिकायत के लिए बॉक्स लगे हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि इनका इस्तेमाल होता होगा। उनकी यह बात भी स्वागत के योग्य है कि कोई भी जवान रैंक ऐंड फाइल की चिंता किए बिना सीधे उन तक अपनी बात पहुंचा सकता है, अगर उसकी बात कहीं सुनी नहीं जा रही।

जवानों के साथ मुनासिब व्यवहार न होने की बात विभिन्न बलों के अंदर से आती रही है। कभी उनके खान-पान का सवाल उठा, कभी उनके रहन-सहन का। यह बराबर बहस में रहा कि सेना और अद्र्धसैनिक बलों के जवानों की वर्किंग कंडीशन और जीवन स्तर में तार्किक मेल नहीं है। यह किसी से छिपा नहीं है कि जवान बहुत मुश्किल हालात में काम करते हैं और उनका वेतन उन दुश्वारियों के पैमाने पर बहुत अल्प है। इस सबके बावजूद उनकी सेवा और सत्यनिष्ठा पर कभी संदेह नहीं रहा। वे परिवार से दूर रहते हैं और कई बार उस असुरक्षा बोध का शिकार भी बनते हैं, जो एकल परिवार की हमारी नई संरचना ने उन्हें दिया है। कई बार वे घर और सीमा के बीच तालमेल नहीं बना पाते और तनाव ले बैठते हैं। कहने में गुरेज नहीं कि उन्हें कड़े अनुशासन और एक अपारदर्शी प्रशासनिक व्यवस्था में रहना पड़ता है, जो कई बार उनकी मुश्किलों को न समझकर नई तरह की दुश्वारियों को जन्म देता है।

सैन्य बलों के जवानों की मुश्किलें और उनके लिए की जाने वाली घोषणाएं हमेशा ठंडे बस्ते में ही रहीं। अब जब दिक्कतें व सिस्टम की मनमानी दिखाते जवानों के वीडियो सामने आए हैं, तो सरकार ने फिर इनके भत्तों पर बैठक बुलाई। लेकिन दो साल में यह आठवीं माथा-पच्ची भी कोई नतीजा न दे सकी। यह अलग बात है कि वर्तमान सरकार के आने के बाद जम्मू-कश्मीर और नॉर्थ ईस्ट में तैनात सेना के जवानों की तर्ज पर केंद्रीय बलों, खासकर छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, ओडिशा, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के लिए भत्ते तय करने की घोषणाएं हुई हैं। मामला सिर्फ वेतन-भत्ते का नहीं, हमारे जवानों की मानसिक स्थिति और उनके आत्मबल की रक्षा का भी है। कठोर अनुशासन पहली शर्त है, लेकिन मानवीय सेवा शर्तें और अुनकूल माहौल के साथ पारदर्शी प्रशासनिक व्यवस्था भी प्राथमिकता में शामिल होनी चाहिए। यह भरोसा भी दिलाए जाने की जरूरत है कि गलत के विरुद्ध आवाज उठाने पर उनका ‘कोर्ट मार्शल’ नहीं होगा, बल्कि कोई सिस्टम होगा, जो उनकी समस्या सुनेगा, समझेगा और सुलझाएगा। ऐसा हुआ, तो शायद फिर किसी तेज बहादुर या जीत सिंह को इस तरह सामने आने की जरूरत नहीं पड़ेगी। फिर शायद कोई बलबीर सिंह भी नहीं बनेगा, जो अपने तनाव में अपने ही साथियों का हत्यारा बन बैठा। 
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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