राकेश दुबे@प्रतिदिन। केंद्र सरकार महिलाओं की एक ऐसी ब्रिगेड तैयार करने में जुटी है, जिसका काम महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों को प्रकाश में लाना होगा। इस संदर्भ में गृह मंत्रालय और महिला व बाल विकास मंत्रालय ने मिलकर इसकी योजना बनाई है। इसके तहत हर जिले में वहां की प्रतिष्ठित महिलाओं को इस ब्रिगेड में शामिल किया जाएगा। हालांकि इस ब्रिगेड के पास लोगों को सजा देने का अधिकार नहीं होगा, बल्कि हिंसा के मामलों को रोकने और पुलिस तक रिपोर्टिंग सुनिश्चित करने का जिम्मा होगा। पहली बार सरकार आम महिलाओं के जरिये घरेलू हिंसा के मामलों को निपटाने की व्यवस्था तैयार कर रही है।
घरेलू हिंसा के संबंध में यूं तो कई वर्षों पूर्व ही कानून बन चुका है, मगर इससे घरेलू हिंसा के मामलों में कमी आई हो, ऐसा नहीं है। अमूमन हम यह मानते हैं कि घरेलू हिंसा का शिकार निर्धन और अशिक्षित महिलाएं अधिक होती हैं, जबकि कई शोध यह बताते हैं कि घरेलू हिंसा की दर शिक्षित और नौकरी-पेशा महिलाओं में अधिक है। कई अध्ययन इसका कारण घर के पुरुष सदस्यों का शराब पीना, पत्नी का उसकी इच्छानुरूप व्यवहार न करना, या बच्चे की देखभाल में लापरवाही आदि मानते हैं, लेकिन क्या वाकई ऐसा है या इससे इतर कुछ और भी है, जिस पर विचार की जरूरत है? दरअसल भारतीय सामाजिक ताना-बाना कुछ इस तरह गुंथा हुआ है, जहां पुरुष के प्रत्येक कृत्य को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है, यहां तक कि स्त्री के विरुद्ध उसके हिंसात्मक व्यवहार को उसके पुरुषत्व के साथ जोड़कर देखा जाता है।
दूसरी ओर, स्त्री का सामाजीकरण इस तरह से किया जाता है कि सफल स्त्री वही है, जो हर हाल में परिवार को बांधकर रखे। परिवार को बांधने का 'सबक' वह स्वयं के भीतर इस तरह आत्मसात कर लेती है कि उसका अपना अस्तित्व परिवार के सामने छोटा हो जाता है और यही कारण है कि परिवार के किसी भी पुरुष सदस्य, विशेषकर पति की शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना को वह बर्दाश्त करना अपनी नियति समझती है। इस नियति का संबंध शिक्षित और अशिक्षित स्त्री से परे है। घरेलू हिंसा स्त्री को सिर्फ शारीरिक चोट ही नहीं पहुंचाती, अपितु एक लंबे समय में उसे अवसाद का शिकार बना देती है।
कानून आश्रय बन सकता है और जन-जागरूकता स्त्री के भीतर चेतनता जागृत कर सकती है, परंतु कानून और जन-जागृति भी तब तक कारगर साबित नहीं होते, जब तक कि स्त्री स्वयं इस अत्याचार के खिलाफ 'न' नहीं कहती। जरूरी है कि स्त्री का सामाजीकरण ऐसा हो, जहां त्याग व समर्पण की भावना के साथ अपने आत्मसम्मान को बचाए रखने के लिए विरोध करने की क्षमता विकसित की जाए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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