सर्वोच्च न्यायलय का फैसला: अभिव्यक्ति के बंद दरवाजे से ताज़ी बयार

राकेश दुबे@प्रतिदिन। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में सूचना-प्रौद्योगिकी कानून 2000 की धारा-66अ  को असंवैधानिक करार दिया है। धारा-66अ  अभिव्यक्ति की आजादी पर अस्पष्ट नियमों की क्रूरता का प्रतीक था। यह गंभीर भी हुआ और अबाध अभिव्यक्ति को दबाने का हथियार था, जिसका गलत इस्तेमाल भी हुआ है। यह हमारे मित्र की तुलना में शत्रु अधिक था। इसलिए सूचना प्रौद्योगिकी कानून, 2000 की धारा-66अ  को खारिज करके शीर्ष अदालत ने वैसे जीवंत भारतीयों की अभिव्यक्ति की आजादी के लिए सचमुच एक बड़ा काम किया है, जो डिजिटल विधा में पारंगत हैं। 

यह निर्णय इस अर्थ में जनता के विश्वास को फिर से बहाल करने में सहयोग करेगा कि उनकी बोलने और सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी संविधान द्वारा संचालित होती है, न कि मनमाने कानूनी प्रावधानों से। धारा-66अ  का जो मनोवैज्ञानिक भय था, वह अब खत्म हो गया है और इस आधार पर यह कहा  जाना चाहिए कि यह फैसला साइबर क्षेत्र में विचारों के स्वच्छंद और भयमुक्त आदान-प्रदान का नया दौर लाएगा। दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1) का उल्लंघन करने और अनुच्छेद 19(2) द्वारा इसकी सुरक्षा न करने के आधार पर इसको रद्द कर दिया। 

यह फैसला ठोस वैधानिक सिद्धांतों पर आधारित है, जिनको समय-समय पर शीर्ष अदालत ने अपना समर्थन दिया है। हालांकि, यह भी साफ है कि इस फैसले का असर कई हितधारकों पर पड़ेगा, जिनमें सामान्य इंटरनेट उपभोक्ता भी हैं और इंटरनेट पेशेवर भी।

पीड़ित के नजरिये से देखें, तो यह फैसला उनको कानूनी इलाज से दूर ले जाता है। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि इंटरनेट के जरिये पीछा करने, सोशल मीडिया पर अभद्र टिप्पणी करने या तस्वीरें चस्पां कर सामाजिक उपद्रव फैलाने या साइबर दुनिया में किसी को अपमानित करने जैसे काम हमारे देश में काफी हो रहे हैं। मोबाइल वेब और वॉट्सअप जैसी ओवर द टॉप एप्लीकेशन्स के आगमन ने साइबर अपराधियों के लिए और भी उर्वर  जमीन तैयार कर दी है, जिससे उनके लिए गैर-कानूनी और आपराधिक कृत्यों को अंजाम देना और आसान हो गया है। ऐसी स्थितियों में धारा-66अ  के तहत जो समाधान उन्हें मिलता था और जिससे प्रभावित लोगों को कुछ राहत मिल जाती थी, वह अब खत्म हो गई है। साइबर अपराधी और कुछ स्वार्थी तत्व इसलिए खुश होंगे, क्योंकि अब उनके सिर पर धारा-66अ  की तलवार नहीं लटक रही है।

इस फैसले से धारा-66अ (स) हिस्से के तौर पर स्पैम के विनियमन से संबंधित प्रावधान भी रद्द हो गया है। इसे इस तथ्य के आलोक में देखा जाना चाहिए कि भारत दुनिया के स्पैम उत्पादन करने वाले शीर्ष देशों में शामिल है और भारत के पास कोई स्पैम लॉ नहीं है। साइबर क्षेत्र में किसी को डराने-धमकाने की करतूत भी भारत में तेजी से फैल रही है। इसमें इजाफे की आशंका बढ़ी है, क्योंकि इंटरनेट पर अफवाहों के सौदागरों के सामने भी धारा-66 ए की दीवार अब नहीं होगी। इस लिहाज से कानून पालन करने वाली संस्थाओं को इनके नियमन के दौरान कई बड़ी मुश्किलें आने की आशंका है।

लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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