आशीष मिश्र/व्यंग्य। अब तक भारतीय कर्मचारियों की छवि षड्यंत्रपूर्वक धूमिल की गई थी. कर्मचारियों के बारे में जबरिया ये भ्रांति फैलाई गई कि वो देर से ऑफिस आते हैं. ऑफिस में काम से बचना चाहते हैं. दो-दो घंटे लंच करते हैं और दफ्तर की कुर्सियों से ज्यादा पान की गुमठी पर नजर आते हैं. लेकिन रिसर्च फर्म बीआई वर्ल्डवाइड के नए अध्ययन ने तमाम षड्यंत्रों पर पानी फेर भारतीय कर्मचारियों की असल छवि सामने ला दी. इससे साफ-साफ दिखता है कि भारतीय कर्मचारी दुनिया में सबसे ज्यादा मेहनती होते हैं, जिसका अर्थ है कि सबसे ज्यादा काम करते हैं.
इस रिसर्च के सामने आते ही ये राज भी अब राज नहीं रहा कि आखिर कैसे यादव सिंह जैसा एक इंजीनियर हजारों करोड़ रुपए कमा लेता है? थोड़ा पीछे जाएं तो पता चलता है कई भारतीय चपरासियों ने दसियों करोड़ कमा-कमाकर रखे थे. जाहिर है ये कर्म फल था और उनकी मेहनत का नतीजा भी. कोई भी कर्मचारी अगर आय से अधिक कमा रहा है तो सीधी सी बात है वो जरूरत से ज्यादा मेहनत कर रहा है. अगली बार इनकम टैक्स डिपार्टमेंट किसी छापे में आय से अधिक संपत्ति पाती है तो कायदा ये बनता है कि संपत्ति राजसात करने की बजाय कर्मचारी को उसकी मेहनत और काम के प्रति लगन के लिए उलटे इनाम-इकराम दिए जाएं.
आराम से दफ्तर में एक चक्कर मारते ही आपको पता चल जाएगा कि कर्मचारी अपने काम के लिए कितने जवाबदार हैं. चपरासी को एक फोटोकॉपी कराने में डेढ़ घंटे लग जाते हैं. ये मगजमारी नहीं, किसी और भाषा में इसे ‘परफेक्शन’ कहते हैं. समय कितना भी लगे पर काम हो तो परफेक्ट हो. काम में तल्लीन किसी बाबू को देखिए, उसके पास जाकर पूछिए बड़े बाबू कहां मिलेंगे? मजाल वो आपकी बात पर कान दे-दे. काम में तल्लीन होना इसे कहते हैं. बात सिर्फ तल्लीन होकर काम करने या काम से प्यार करने की नहीं कुछ को तो फाइल्स से इतना प्यार हो जाता है कि अपनी टेबल से आगे बढ़ने ही नहीं देना चाहते. उन्हें लगता है फाइल न कहीं से आई न कहीं जाएगी. वो बस उनकी टेबल पर ठहर जाने को उतरी है. आप में कुव्वत है तो दूसरे साधनों से फाइल आगे बढ़वाइए.
किन्ही मैडम को कुर्सी पर धंसे स्वेटर बुनते देखिए, तब आपको लगेगा आप असल भारतीय दफ्तर के दर्शन कर रहे हैं. जिस तरह भारतीय ट्रेन चैन में बंधे मग्गे के बिना अधूरी है, उसी तरह दफ्तर स्वेटर बुनती महिलाओं के बिन अधूरे हैं. कोई महाकवि हो तो इस पर अमर महाकाव्य लिख सकता है. अलमारी पर गट्ठर बंधी फाइलों से झांकते कागजऔर गेरुआ पुती दीवार के बीच मोटे चश्मे वाली महिला कर्मचारी का एक तपोनिष्ठ सा आभामंडल आम आदमी को जिस तरह का भी दिखता हो पर कवि के काव्य कीड़े को कुलबुलाने के लिए काफी होगा.
सॉलिटेयर खेलते और पान की पीक से कुर्सी के बगल की दीवार रंगते किसी बड़े बाबू को देखिए. मॉडर्न आर्ट का सारा ज्ञान दफ्तर कि दीवार पर उड़ेल देने का मन बनाकर आए लगते हैं. हर तरह के हुनर को बस दफ्तर में आजमाना चाहते हैं और किस मुल्क के बाशिंदों में है इतना जज्बा कि दफ्तर के लिए एकनिष्ठ हो जाएं शायद इसीलिए चीन-अमेरिका सब इस इस रिसर्च के आंकड़ों में हमसे नीचे रह गए.
ये बात सिर्फ सरकारी दफ्तरों की नही जहां कर्मचारी छुट्टा फोटोकॉपी की दुकान से लेकर छुटभैए नेताओं तक के पीछे मेहनत कर रहे होते हैं. प्राइवेट के भी यही हाल हैं. न नए-पुरानों में कोई फर्क है. फर्क इतना है कि नयों को ध्यान काम के साथ जीएफ पर ज्यादा रहता और पुरानों का पीएफ पर.