जो सरकार मजीठिया नहीं दिला सकी, वो पत्रकारों से सहयोग की उम्मीद क्यों करती है | KHULA KHAT@ CM SHIVRAJ SINGH

विवेक पाठक। पुलिस और हेल्थ की तरह पत्रकार समाज भी समाज को अति आवश्यक सेवाएं दे रहा है। 24 घंटों सातों दिन फोन पर फंसा पत्रकार अपनी व्यक्तिगत जिंदगी को कितना समय दे पाते हैं। अविवाहित पत्रकारों ने कितनी बार अपने मां-बाप को तसल्ली से समय दिया है। कितनी दफा एक फुलटाइम पत्रकार अपनी बीमार मां को अस्पताल में ले जाकर जांच उपचार के लिए दो से चार घंटे लगातार समय दे पाता है। शादी के बाद पत्रकारों के वैवाहिक जीवन में समय को लेकर क्या दुविधाएं और उलझनें पैदा होती हैं उसे पत्रकार बिरादरी और उनके घर परिवार वाले ही जानते हैं। 

पत्रकार बिरादरी के बच्चे भी स्वभाविक स्नेह से समयाभाव के कारण वंचित रहते हैं। पापा जब सोए रहते हैं तो बच्चे स्कूल निकल लेते हैं। दोपहर में बच्चों और बीबी को पापा मिल जाएं तो मोबाइल सौतन बना रहता है। एक पत्रकार दिन भर दुनिया जहान के फोन उठा उठाकर क्या महसूस करता है ये तो भुगतभोगी ही बता सकते हैं। शाम से रात को आने तक भी बीबी, बच्चों से पत्रकारों का आनंदमय संवाद बिरले ही हो पाता है। 

भागमभाग की इस जिंदगी में पत्रकार अपने माता पिता, गांव, स्वास्थ्य, नाते रिश्तेदारी से लेकर पुराने दोस्तों को भी वक्त नहीं दे पाते। इन सबका खामियाजा उसे जिंदगी के विभिन्न अवसरों पर सुनने, समझने और महसूस करके भुगतना पड़ता है। मप्र सरकार अरबपति अखबारों को खूब विज्ञापन बांटे मगर बहुसंख्यक जमीनी पत्रकारों के लिए भी सार्थक रुप से कुछ हितकारी निर्णय ले। पत्रकार भले ही निजी क्षेत्र के सेवादाता हैं मगर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रुप में अत्यावश्यक सेवाएं बिना बात बात की छुट्टियों के दे रहे हैं।

सरकार उनकी चिंता क्यों नहीं करती। उनकी आवश्यक सेवाओं के बदले पुलिस और रेलवे की तरह अतिरिक्त मेहनताना दिलाने की पहल क्यों नहीं की जाती। क्या अखबार मालिकों ने डरा रखा है। 56 इंच के सीने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के पत्रकारों को मजीठिया पे स्केल क्यों दिलाते। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के बाद भी अखबार मालिकों का ये डीठपना देखने लायक है। सरकार को यह समझना होगा कि अखबार मालिक और पत्रकार का अस्तित्व अलग अलग होता है। अब जमाना सोशल मीडिया का है। मालिक को मैनेज करने से पत्रकार मैनेज नहीं होंगे। उन्हे उनके अधिकार देने ही पड़ेंगे। 

मुख्यमंत्री निवास से लेकर राजधानी भोपाल में आठ दस पत्रकार ही क्यों सरकार के सम्मानीय बने रहते हैं। क्या पूरी पत्रकार बिरादरी ने इन्हें अपना प्रतिनिधि बना रखा है। सरकार इन दरबारी पत्रकारों के आवरण से बाहर आकर गांव देहात और शहरों में दिन रात बेपरवाह काम कर रहे पत्रकारों के कल्याण के लिए कुछ सार्थक करके दिखाए। आखिरकार समाज भी समझे कि उनकी समस्याओं को सरकार तक पहुंचाने वाले पत्रकार भी जिंदगी में समस्याओं का सामना कर रहे हैं।

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