Motivational story in Hindi - सुख का रहस्य

एक नगर में एक लड़का रहा करता था। उसका दिमाग बहुत तेज़ था। उसकी ख़ासियत यह थी कि वह किसी भी चीज़ को बड़ी जल्दी और आसानी से सीख लेता था। जहाँ अन्य लोगों को किसी काम को सीखने में कई महीने या वर्ष लगते थे, वहाँ वह उसी काम को सीखने में केवल कुछ दिन लगाता था। 

उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी। कहा जाने लगा था कि उस व्यक्ति के जितना बुद्धिमान अन्य कोई नहीं है। परंतु वह व्यक्ति तो जानता था कि वह भीतर से असंतुष्ट और अशांत है। हर व्यक्ति जानता है कि वह भीतर से क्या है, चाहे वह बाहर कुछ भी दिखाए। वह व्यक्ति भी भीतर से तो परेशान था, परंतु वह अपने अहंकार से अपनी परेशानियों को ढ़कना चाहता था। ज़्यादातर लोग ऐसा ही करते हैं।  

वह व्यक्ति अपनी प्रसिद्धि को और बढ़ाने के लिए तरह-तरह के काम सीखता रहा। वह चित्रकारी जानता था, मूर्ति बना सकता था, गीत गा सकता था, पहिए बना सकता था। वह दुनिया-जहान का हर वह काम सीख चुका था, जो उसने अब तक देखे थे। इसलिए उसे अपनी बुद्धिमता पर अहंकार था, क्योंकि कोई भी साधारण व्यक्ति एक काम कर सकता है, दो काम कर सकता है ज़्यादा से ज़्यादा तीन काम कर सकता है। परंतु वह तो हर काम कर सकता था और बहुत अच्छी तरह से कर सकता था। इसलिए उसे अपनी बुद्धिमता पर अहंकार था। वह मन ही मन इस बात को मान चुका था कि उसके जितना बुद्धिमान अन्य कोई नहीं।

एक दिन उसका सामना गौतम बुद्ध से होता है। उसे पहली बार कोई ऐसा व्यक्ति दिखता है, जिससे उसे इर्ष्या होती है। अब तक उसने केवल ऐसे लोग देखे थे, जो उससे ईर्ष्या करते थे। अब जहाँ ईर्ष्या होती है, वहाँ तुलना का होना निश्चित है। वह व्यक्ति अपनी तुलना बुद्ध के साथ करना शुरू कर देता है। वह देखता है कि बुद्ध के पास तो बस एक भिक्षा का कटोरा है, परंतु उसके पास धन की कोई कमी नहीं। बुद्ध के वस्त्र तो बड़े साधारण से हैं, परंतु उसके वस्त्र बहुत कीमती है। बुद्ध तो जमीन पर नंगे पैर चलते हैं, परंतु वह नंगे पैर नहीं चलता।

इसी तरह से वह व्यक्ति सैकड़ों चीजों से बुद्ध की तुलना खुद से करता है, परंतु हर तुलना के बाद भी वह पाता है कि उसकी ईर्ष्या बुद्ध के प्रति एक प्रतिशत भी कम नहीं हुई। वह व्यक्ति मन ही मन सोचता है कि मैं इस भिक्षु से ईर्ष्या क्यों कर रहा हूँ? जबकि मेरा जीवन इस से सौ गुना बेहतर है। लोग भी इसका सम्मान कर रहे हैं। आखिर इसके भीतर ऐसा क्या है, जो मुझ में नहीं है और जिसके कारण मेरे भीतर इसके प्रति ईर्ष्या है?

बहुत देर अपने मन में उलझे रहने के बाद वह व्यक्ति तय करता है कि वह बुद्ध के पास जाएगा और उनसे ही पूछेगा कि उनकी उपलब्धि क्या है? वह व्यक्ति अपने कुछ सेवकों के साथ बुद्ध के पास जाता है और उनसे कहता है कि, "मैं इस इलाके का सबसे बुद्धिमान और सुखी व्यक्ति हूँ। आप अपने आस-पास जो भी कार्य होता देख रहे हैं, मैं वे सब करना जानता हूँ। किसी भी कार्य को सीखने में मुझे बहुत कम समय लगता है। सभी लोग मेरा सम्मान करते हैं। परंतु इस सबके बाद भी मेरे भीतर आपके लिए ईर्ष्या है। मैं जानना चाहता हूँ कि आपकी उपलब्धि क्या है। यह लोग आपका इतना आदर सम्मान क्यों कर रहे हैं?" 

बुद्ध शांत भाव से उसे कहते हैं, "वैसे तो मेरी कोई उपलब्धि नहीं है, परंतु तुम कह सकते हो कि मेरे पास एक उपलब्धि है।" वह व्यक्ति पूछता है, "क्या मैं जान सकता हूँ?" तो बुद्ध कहते हैं, "मेरी एक उपलब्धि है कि मैं सभी उपलब्धियों को छोड़ चुका हूँ।" वह व्यक्ति आश्चर्य के साथ बुद्ध से पूछता है, "मतलब? मैं कुछ समझा नहीं!!!"

बुद्ध उस व्यक्ति से कहते हैं, "क्या तुम्हें प्रशंसा अच्छी लगती है?" वह व्यक्ति कहता है, "हाँ, प्रशंसा तो सबको अच्छी लगती है।" बुद्ध पूछते हैं, "और निंदा।" वह व्यक्ति कहता है, "भला इस संसार में ऐसा कौन है जिसे निंदा अच्छी लगे।"

बुद्ध कहते हैं, "जो तुम्हें अच्छा लगता है और जो तुम्हें बुरा लगता है, मैं इन दोनों से ही ऊपर उठ चुका हूँ। ना मुझे निंदा सताती है और ना ही प्रशंसा प्रसन्न करती है। बस यही अंतर है तुम में और मुझ में।"

वह व्यक्ति कहता है, "परंतु यह कैसे संभव है?" बुद्ध मुस्कुराते हैं और कहते हैं, "तुमने सैकड़ों काम सीखे, परंतु एक सबसे जरूरी काम सीखना भूल गए।" वह व्यक्ति आश्चर्य से पूछता है, "कौन सा काम?"

बुद्ध कहते हैं, "अपने मन को नियमित करना क्या तुम्हें आता है?" बुद्ध की बात सुन वह व्यक्ति समझ जाता है कि ईर्ष्या का यही कारण था। बुद्ध कहते हैं, "जिस व्यक्ति ने सारा जगत जीत लिया; परंतु अपना मन नहीं जीता, उसने कुछ नहीं जीता और जिसने अपना मन जीत लिया; परंतु सब कुछ गँवा दिया, उसने सब कुछ जीत लिया, क्योंकि वास्तव में सुखी वही है, जो अपने मन का शासक है।"

बुद्ध के शब्दों को सुन उस व्यक्ति का अहंकार टूटता है और वह बुद्ध से कहता हैं, "क्या आप मुझे अपने मन को जीतना सिखाएँगे?" बुद्ध कहते हैं, "अवश्य, परंतु मैं तुम्हारी सारी उपलब्धियाँ छीन लूँगा।"

वह व्यक्ति कहता है, "मैं तैयार हूँ।" उस दिन से वह व्यक्ति ध्यान करना शुरू कर देता है। क्योंकि ध्यान ही वह तरीका है, जिससे हम अपने मन को अपने वश में कर सकते हैं।

"यदि एक बार मन सामंजस्यपूर्ण स्थिति में आ जाए, तो फिर न बाहरी परिस्थितियों और वातावरण का उस पर कोई प्रभाव होगा और न ही आंतरिक अशांति होगी। ध्यान के सतत अभ्यास से मन शांत और स्थिर बन जाएगा।”  
“मन को स्थिर और शांत करने में ही सारे सुखों का रहस्य छिपा हुआ है।”
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