शहर से उठे जंगल के सवाल | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान वैसे ही विश्व का अनूठा संस्थान है। इन दिनों सामाजिक सरोकार में हस्तक्षेप के लिए वैचारिक मंथन के अनूठे आयोजन भी करता है। 17 फरवरी को भोपाल के सुधिजनों ने सवाल उठाया कि वनों का प्रबंधन कैसे करना चाहिए? यह सवाल अजीब लगता है, लेकिन सही है। मध्यप्रदेश सरकार नर्मदा के किनारे करोड़ों पौधे लगाने जा रही है, उनका प्रबन्धन कैसे होगा ? इस पर से उठी बहस ने आगे-पीछे की सारी कहानी से पर्दा उठा दिया। नर्मदा के किनारे जहाँ करोड़ों वृक्षारोपण का लक्ष्य था, वहां की ताज़ा रिपोर्ट घोषणा और प्रयास को 10 में से 0 अंक देती है। नर्मदा किनारे के जन प्रतिनिधि नर्मदा यात्राओं को मजाक कहकर इस मुद्दे से पल्ला झाड़ रहे हैं। अब देश की तस्वीर।

भारतीय सर्वेक्षण विभाग की उपग्रह तस्वीरों पर आधारित वन स्थिति रिपोर्ट, 2017 में यह पाया गया है कि वन क्षेत्र कुल मिलाकर स्थिर है, जिसमें वर्ष 2015 और 2017 के बीच केवल ०.२१ प्रतिशत बदलाव दर्ज किया गया है। देश के कुल भू-क्षेत्र में से करीब २१.५४ प्रतिशत वन क्षेत्र है। वन विभाग के तहत आने वाले वन देश के कुल वनों का २३ प्रतिशत हैं। इसलिए ऐसा लगता है कि वन की कहानी अच्छी खबर है, लेकिन इस पर तुरंत भरोसा नहीं करना चाहिए। पहला, हमें यह समझना चाहिए कि इन पेड़ों की तादाद में कहां बढ़ोतरी हो रही है। दूसरा, हमें यह समझना चाहिए कि उस जंगल की गुणवत्ता कैसी है, जो स्थिर बना हुआ है। 

वन स्थिति रिपोर्ट के मुताबिक यह कहना संभव नहीं है कि वन विभाग के तहत आने वाले वनों का क्षेत्र कितना है क्योंकि सभी राज्य सरकारों ने इन भूखंडों की सीमाओं के डिजिटलीकरण का काम पूरा नहीं किया है। इसलिए हमारे पास वर्गीकृत और संरक्षित वन भूमि के वनों की संपूर्ण तस्वीर नहीं है। 

इसी रिपोर्ट के मुताबिक अभी १६  राज्यों ने अपने वनों की सीमाओं का डिजिटलीकरण किया है। दरअसल ये आंकड़े दर्शाते हैं कि राज्यों में पहले वनों के रूप में दर्ज काफी क्षेत्र में 'कमी' आई है और ब्योरे के डिजिटलीकरण के बाद ये नहीं मिल रहे हैं। इन १६  राज्यों में करीब ७०००० वर्ग किलोमीटर वन भूमि खत्म हो गई है, जो अभिलिखित वन क्षेत्र का करीब १२ प्रतिशत है। इससे यह जानने के लिए देशभर में सीमाओं का डिजिटलीकरण पूरा करना अहम हो जाता है कि आरक्षित या संरक्षित वनों के क्षेत्र की क्या स्थिति है।

इसके अतिरिक्त वनों की गुणवत्ता भी एक सवाल है। इस रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि वर्ष २०१५  से २०१७ के बीच 'अत्यधिक सघन' के रूप में वर्गीकृत वनों में करीब ९००० वर्ग किलोमीटर का इजाफा हुआ है। वहीं सामान्य सघन जंगलों में गिरावट आई है, जबकि खुले वनों में कुछ बढ़ोतरी हुई है। इससे ऐसा लगता है कि वन क्षेत्र की गुणवत्ता सुधरी है और 'सामान्य सघन' वन 'अत्यधिक सघन' वनों में तब्दील हुए हैं। अच्छी खबर है? इस पर इतने जल्द भरोसा करने की जरूरत नहीं है। 

इस बदलाव के लिए जो वजह बताई गई है, वे कई हैं। इनमें उपग्रह तस्वीरों में सुधार से लेकर संरक्षण और वन विभाग के तहत आने वाली वन भूमि से बाहर पौधरोपण तक शामिल हैं। इसलिए यह कहानी का मुख्य बिंदु है। हम ७.६ लाख वर्ग किलोमीटर वन विभाग की वन भूमि का संरक्षण क्यों कर रहे हैं। उनका क्या उपयोग है? क्या यह उत्पादक उपयोगों के लिए पौधरोपण है? उस मामले में कौन पौधरोपण करेगा और उससे किन्हें फायदा होगा, वन विभाग को या इन क्षेत्रों में रहने वाले ग्रामीण समुदायों को? क्या भारत की वन भूमि केवल संरक्षण के मकसद के लिए है, इसलिए उस वन विभाग को सौंपा गया है? क्या हम पेड़ों को उगाएंगे और काटेंगे, वन विभाग की वन भूमि में नहीं बल्कि निजी जमीन में। ये सवाल न पूछे गए और न ही उनका जवाब दिया गया। 

अनुमानों के मुताबिक वन विभाग के तहत आने वाली वन भूमि से लकड़ी का सालाना उत्पादन ४०  लाख घन मीटर है और इसलिए लकड़ी की ज्यादातर मांग वन भूमि से बाहर से या आयातित लकड़ी से पूरी होती है। आयात में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। दरअसल उगाए जाने वाले वनों का ३० प्रतिशत वन विभाग के वनों से बाहर है, मतलब निजी हैं | इसलिए सवाल यह उठता है कि भारत में वन भूमि का क्या मतलब है? शहर से उठा जंगल का यह सवाल सबका है, राजनीति छोड़ कर गौर फरमाएं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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