बैंकिग घोटाले: एक नजर इधर भी | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश ही नहीं विदेश में भी भारत के सरकारी बैंकों की बदहाली का मुद्दा चर्चा में है। भारत में तो बात को लेकर आम सहमति बनती जा रही है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक गहरे संकट का शिकार हैं और उन्हें किसी असाधारण उपाय से ही सुधारा जा सकता हैं। इतिहास को पलटें तो पिछले कुछ वर्षों में बैंक घोटालों में लगातार तेजी आई है। २०१३ के वर्ष में रिजर्व बैंक में डॉ. के.सी.चक्रवर्ती डीपटी गवर्नर होते थे, तब उन्होंने जानकारी दी है कि एक करोड़ रुपये से ज्यादा के घोटालों का हिस्सा २००४-०५ से २००६-०७ के बीच ७३ प्रतिशत था, जो २०१०-११ और २०१२-१३ में ९०  प्रतिशत हो गया। 

रिजर्व बैंक की फाइनैंशल स्टैबिलटी रिपोर्ट, जून २०१७ को देख्ने तो  एक लाख से ऊपर के घोटाले का कुल मूल्य पिछले पांच वर्षों में ९७५०  करोड़ से बढ़कर १६७७० करोड़ तक पहुंच गया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि २०१६ -१७ में घोटाले की कुल राशि का ८६ प्रतिशत हिस्सा लोन से जुड़ा था। इन आंकड़ों से क्या गंभीरता समझ नहीं आती। आश्चर्य तो ये है कि इसके बाद भी सरकार चुप और प्रतिपक्ष इस मुद्दे को भुनाने पर लगा है। गंभीर प्रयास कोई करने को राजी नहीं है।

इन घोटालों के साथ बढ़ते एनपीए को देखकर एक राय यह भी सुनने में आ रही है कि क्यों न इन बैंकों को भी निजी हाथों में सौंपकर सारा झंझट ही खत्म कर दिया जाए। पिछले दिनों उद्योग मंडल ऐसोचैम ने कहा कि सरकार को बैंकों में अपनी हिस्सेदारी ५० प्रतिशत से नीचे ला देनी चाहिये ताकि  सरकारी बैंक भी निजी क्षेत्र के बैंकों की तरह जमाकर्ताओं के हितों को सुरक्षित रखते हुए अपने शेयरधारकों के प्रति पूर्ण जवाबदेही बरत सकें। ऐसोचैम के मुताबिक, सरकार के लिए करदाताओं के पैसे से इन बैंकों को संकट से उबारते रहने की भी एक सीमा है। 

लेकिन इस मामले को दूसरी तरफ से देखें तो लगता है कि निजीकरण इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता।इससे बैंकों के राष्ट्रीयकरण सके पीछे का उद्देश्य प्रभावित होता है। सबसे बड़ी परेशानी यह है कि गांवों और छोटे कस्बों तक अपनी पहुंच बढ़ाना निजी बैंकों के अजेंडे पर ही नहीं है। सरकारी बैंकों पर से सरकार का कब्जा हटते ही देश की एक बड़ी आबादी बैंकिंग सिस्टम से कटने के अलावा सरकारी योजनाओं के लाभ से भी वंचित हो जाएगी। आज मनरेगा की मजदूरी से लेकर लगभग सारी सब्सिडी सीधे लोगों के खाते में जा रही है। 

यह काम सरकारी बैंकों के जरिए ही संभव है। निजी बैंक तो न्यूनतम जमा राशि भी इतनी ज्यादा मांगते हैं कि गरीब तबका उनमें खाता ही नहीं खुलवा सकता। निजी बैंक अपनी प्रणाली शहरी मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं को ध्यान में रखकर तैयार करते हैं। सारे मामले में एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि विश्वव्यापी मंदी में भारतीय अर्थव्यवस्था के पैर जमे रहे इसका काफी श्रेय सरकारी बैंकों की धीमी रफ्तार को जाता है। बेहतर होगा वर्तमान में उनसे पीछा छुड़ाने के बजाय उन्हें सुधारने की कोशिश होनी चाहिए। बैंकों के प्रबंधन का ढांचा बदला जाना चाहिए और इसके वे नियम कायदे दुरुस्त होना चाहिए जो  ब्रांच मैनेजर के मुकाबले बड़े अधिकारियों की जवाबदेही कम करते हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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