देश-प्रदेश का कमजोर स्वास्थ्य ढांचा | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। आज़ादी के 71 साल बाद भी देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी झोलाछाप डॉक्टरों पर निर्भर है। भारत की 1.3 अरब की जनसंख्या पर दस लाख डॉक्टर हैं, जिनमें 10 प्रतिशत का ही जुड़ाव सरकारी स्वास्थ्य ढांचे से है। मध्यप्रदेश का चित्र भी इससे भिन्न नहीं है। कहीं डाक्टर नहीं हैं, तो कहीं डाक्टर नियुक्ति लेकर गायब हैं अब मध्यप्रदेश सरकार डाक्टरों को मनमाफिक वेतन पर काम देने के फार्मूले भी तलाश रही है।

स्वास्थ्य की व्यापकता यानि संविधान की धारा-47 भी जिसकी वकालत करती है और वह यह कि 'सबके लिये स्वास्थ्य का अर्थ यह सुनिश्चित करना कि सस्ती व उत्तम् स्वास्थ्य सेवाओं, सुरक्षित पेयजल तथा स्वच्छता प्रबन्ध, पर्याप्त पोषण, वस्त्र, आवास तथा रोजगार तक हर किसी की पहुंच हो तथा वर्ग, जाति, लिंग या समुदाय के आधार पर किसी के साथ भेदभाव ना हो। अर्थात् जब हम स्वास्थ्य की बात करेंगे तो वह महज रोग या रोग का प्रतिरोध तक सीमित ना रहने वाली चीजों के बजाये जुड़ी पूरक स्थितियों पर भी केन्द्रित होगी।

यहां एक और चीज में सूक्ष्म सी विभिन्नता है और वह यह कि 'स्वास्थ्य' और स्वास्थ्य सेवायें दो अलग-अलग भाग हैं परन्तु हम कभी-कभार इसे एक मानने की भूल कर बैठते हैं। क्योंकि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा एक ऐसी स्वास्थ्य सेवा होती है जो कि ऐसी विधियों व तकनीकों पर आधारित होती है जिन तक आम आदमी व साधारण परिवारों की पहुंच हो और जिसमें समाज की पूर्ण हिस्सेदारी हो, लेकिन जब हम स्वास्थ्य की बात करेंगे तो हम धारा-47 के अंतर्गत, व्याख्यायित व्यापकता को आधार मानेंगे।

मध्यप्रदेश में आज स्वास्थ्य की स्थिति देखते हैं तो जहां एक ओर स्वास्थ्य संकेतक चीख-चीखकर प्रदेश की कहानी बयां कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश सरकार के प्रयास नाकाफी लग रहे हैं। शिशु मृत्यु दर के मामले में प्रदेश सरकार अव्वल स्थान पर है तो मातृ-मृत्यु के मसले पर द्वितीयक स्थान पर है। अपुष्ट आंकड़ों के अनुसार प्रतिदिन प्रदेश में 371 शिशु एंव 35 महिलायें प्रसव के दौरान या प्रसव में आई जटिलताओं के कारण दम तोड़ रही है, ऐसे में प्रदेश की स्थिति नाजुक जान पड़ती है। संस्थागत-प्रयास को बढ़ावा देने में लगी सरकार ने अधोसंरचना विकास की प्राथमिकता स्पष्ट नहीं की है और एक के बाद योजनायें लादकर वाहवाही लूट रही है। 


विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक गांवों में लोगों का इलाज कर रहे हर पांच में से एक डॉक्टर के पास ही प्रैक्टिस के लिए जरूरी योग्यता होती है। 57.3 प्रतिशत के पास तो किसी तरह की कोई योग्यता नहीं होती। स्वास्थ्य सेवा भी शिक्षा की तरह दो भागों में बंट गई है। जो संपन्न तबका है, उसके लिए प्राइवेट सेक्टर की बेहतर सेवा उपलब्ध है। लेकिन जो गरीब हैं, वे छोटी-छोटी बीमारियों से भी तबाह हुए जा रहे हैं। हालात बेकाबू होने पर वे सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए जाते हैं, लेकिन ये भी अक्सर उनकी पहुंच से दूर ही होते हैं और सरकारी अस्पतालों का हाल भी कैसा है, न जरूरी उपकरण, न जांच और इलाज की बाकी सुविधाएं। डॉक्टर भी वहां हमेशा नहीं मिलते। सरकार की दिलचस्पी नए अस्पताल खोलने से ज्यादा गरीब का स्वास्थ्य बीमा कराने में है। सवाल यह है कि ऐसे स्वास्थ्य ढांचे के बल पर हम एचआईवी-एड्स और बहुत सारी खतरनाक संक्रामक बीमारियों से कैसे बच पाएंगे?
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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