माई लार्ड ! जनता का विश्वास आप में कम हो रहा है | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश के सर्वोच्च न्यायालय में जो हुआ और उसके बाद राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप का जो सिलसिला चला है वह देश के हित में तो है ही नहीं, आम नागरिक की  न्यायलयों के प्रति आस्था को गहरी ठेस पहुँचाने वाला है। सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों ने सार्वजनिक तौर पर प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ मनमाना व्यवहार करने या न्यायिक प्रक्रियाओं का अनुपालन न करने के आरोप ने शीर्ष अदालत की सर्वमान्य प्रतिष्ठा को गहरा झटका दिया है। जो देश के प्रजातांत्रिक ढांचे के वर्तमान माडल पर भी सवाल खड़े कर रहा है।

देश के और देश की शीर्ष अदालत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश चेलमेश्वर, न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायाधीश मदन लोकुर और न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने पत्रकार वार्ता में प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की प्रशासनिक कार्यशैली पर जो गंभीर सवाल खड़े किये हैं। वे न्यायपालिका की विश्वसनीयता की बुनियाद को कमजोर करते हैं।

इन चारों न्यायाधीशों ने प्रधान न्यायाधीश को संबोधित सात पृष्ठों का एक  पत्र भी जारी किया है, जिसमें महत्त्वपूर्ण मामलों में सामूहिक निर्णय और कार्य के बंटवारे को लेकर भी नाराजगी जताई गई है। इन जजों का आरोप है कि देश के कुछ महत्त्वपूर्ण मामले चुनिंदा बेंचों और जजों को ही दिये जा रहे हैं। इन आरोपों के प्रकाश में यह सवाल बहुत अहम है कि ये न्यायमूर्ति महोदय अगर  देश के  प्रधान न्यायाधीश की समझदारी पर सवाल उठा रहे हैं , तो उन्हें यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि वे आखिर किस इरादे से ऐसा कर रहे हैं ?

इससे जुडा दूसरा महत्त्वपूर्ण सवाल यह भी है कि यदि प्रधान न्यायाधीश अहम सुनवाई के लिए किसी चुनिंदा बेंच का गठन करते हैं तो इसके पीछे उनकी मंशा क्या है? क्या आरोप लगाने वाले न्यायमूर्तियों के पास इसका कोई पुख्ता सबूत है। अगर नहीं है तो उनसे भी यह सवाल पूछा जा सकता है कि इस मामले के पीछे आपकी दिलचस्पी क्या थी? केवल हवा में आरोप उछालकर वे लोकतंत्र की हिफाजत नहीं की जा सकती। लोकतंत्र का बचाव और मुकदमा किस अदालत में चले दोनों अलग-अलग विषय हैं ? मी लार्ड आपको यह तो स्पष्ट करना ही होगा ? आरोप प्रमाणित करने का दायित्व किस पर होता है और क्यों होता है ? आप ही तो समाज को सिखाते हैं, इस संघर्ष के कारकों की स्पष्ट व्याख्या दोनों ओर से होना जरूरी है। राजनीतिक वकालत तो इसे किसी और रंग में रंग देगी।

यह मसला वैचारिक संघर्ष का हो या फिर अहं का टकराव का, क्योंकि आरोप लगाने वाले न्यायाधीश वरिष्ठ हैं और उन्हें यह भलीभांति पता है कि प्रधान न्यायाधीश के विशेषाधिकार पर सवाल खड़े नहीं किए जा सकते हैं, लेकिन जो कुछ भी हुआ, वह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है और इससे न्यायपालिका की निष्ठा पर सवाल खड़े हो रहे हैं? माई लार्ड !
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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