इन चुनावों से उपजा, प्रदेश की राजनीति का केन्द्रीयकरण | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। हर चुनाव से राजनीति में नये समीकरण सबक और संदेश उभरते हैं। हाल ही में सम्पन्न हिमाचल और गुजरात के चुनाव से ऐसा ही एक संकेत उभरा है। वो संकेत है स्थानीय राजनीति से स्थानीय नेतृत्व का गौण हो जाना। यह एक चिंताजनक बात है। राजनीति प्रजातंत्र की जगह किसी और दिशा में जाने का संकेत कर रही है। कुछ साल पहले तक विधानसभा चुनाव मुख्य रूप से राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के स्थानीय नेताओं की ताकत से लड़े जाते थे। महाराष्ट्र, असम और पंजाब ने भाजपा और कांग्रेस दोनों के स्थानीय नेताओं की ताकत देखी है।

देवेंद्र फडणवीस, सर्वानंद सोनोवाल और अमरिंदर सिंह जैसे ताकतवर स्थानीय नेताओं की लोकप्रियता ने इन राज्यों के विधानसभा चुनावों के अंतिम नतीजों में अहम भूमिका निभाई। उनमें से प्रत्येक पार्टी को विधानसभा चुनाव जिताने में अग्रणी भूमिका निभाने से पहले अपने-अपने राज्य में पार्टी के किसी प्रमुख पद पर था। इसके विपरीत इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, अब कांग्रेस अध्यक्ष बन चुके राहुल गांधी जैसे राष्ट्रीय नेताओं ने इन राज्यों के विधानसभा चुनावों में जो भूमिकाएं निभाई है वे राज्य के नेताओं के प्रभाव को गौण करती दिख रही है गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव परिपाटी से हटकर हैं। ये उस रुझान को और मजबूत करते हैं, जो इस साल के प्रारंभ में उत्तर प्रदेश के चुनावों में शुरू हुआ था। ऐसा नहीं है कि भाजपा और कांग्रेस के पास वरिष्ठ और अहम पदों पर स्थानीय नेता नहीं हैं। लेकिन चुनावों में उनकी भूमिका तुलनात्मक रूप से मामूली रही। चुनाव प्रचार के दौरान उन पर मोदी, शाह और गांधी हावी रहे। 

क्या आज कोई यह बता सकता है कि चुनाव प्रचार के दौरान गुजरात में भाजपा के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने क्या कहा था? हिमाचल प्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल ने क्या कहा? या गुजरात में कांग्रेस के दिग्गज नेता शक्तिसिंह गोहिल और हिमाचल प्रदेश में नई सरकार आने के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटने जा रहे कांग्रेस के वीरभद्र सिंह ने क्या कहा था? चुनाव प्रचार में विशेष रूप से गुजरात में मोदी और गांधी का ही दबदबा था।

कहने को दोनों दलों द्वारा जारी चुनावी घोषणापत्र में स्थानीय मुद्दे थे, लेकिन भाजपा और कांग्रेस के प्रचार अभियान में इन मुद्दों को बहुत कम जगह मिली। इसकी मुख्य वजह यह थी कि ये प्रचार अभियान उनके राष्ट्रीय नेताओं ने चलाए। उनका तात्कालिक लक्ष्य विधानसभा चुनाव जीतना था, लेकिन उनका ज्यादा महत्त्वपूर्ण और लंबी ïअवधि का लक्ष्य अगले आम चुनावों की जमीन तैयार करना था। वर्तमान जंग राज्य विधानसभा के लिए थी, लेकिन असली लड़ाई २०१९ में  होने वाले लोक सभाचुनाव  के लिए थी। 

इससे एक बड़ा खतरा नजर आता है। राज्यों के प्रशासनिक मुद्दों की अनदेखी करने और विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय नेताओं और राष्ट्रीय मुद्दों के दबदबे से नेतृत्व के स्तर पर खालीपन पैदा हो सकता है, जिससे  राजनीतिक उत्तराधिकार के लिए गंभीर संकट पैदा हो जायेगा । वैसे भी मुख्यमंत्रियों सहित राज्यों के नेता केंद्र में सरकार का हिस्सा बनने के अनिच्छुक हैं क्योंकि वे अपनी ताकत और आजादी नहीं खोना चाहते हैं। ऐसे में राष्ट्रीय राजनीतिक दल राज्य स्तरीय नेताओं की जगह भी छीन लेंगे तो यह बहुत गलत होगा। भाजपा और कांग्रेस दोनों को राज्य स्तरीय नेताओं की एक मजबूत टीम खड़ी करनी चाहिए और उन्हें अपनी जगह में बने रहने की आजादी देनी चाहिए। वरन,राजनीति केंद्र आधारित हो जाएगी और एकांगी मार्ग पर चल पड़ेगी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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