गुजरात और हिमाचल बहुत कुछ है करने को | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। गुजरात और हिमाचल के नतीजे देश की राजनीति एवं सरकार की नीति के भावी परिदृश्य का स्पष्ट संकेत दे रहे हैं। जहां हिमाचल प्रदेश में भाजपा बड़े अंतर से जीती है वहीं गुजरात के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करीबी नाता होने के बावजूद पार्टी को वहां पर कहीं अधिक कड़ी चुनौती मिली है। भाजपा भले ही यह मान कर खुश हो ले कि वह न केवल लगातार पांच बार से सत्ता में होने के बाद भी सत्ता-विरोधी रुझानों का मुकाबला करने में सफल रही है। साथ ही उसे यह याद रखना होगा कि उसका मत-प्रतिशत भी पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में मामूली बढ़ा है। जबकि कांग्रेस का मत प्रतिशत गुजरात में सुधरा है। गुजरात की  सुरक्षित सीटों पर भी भाजपा का प्रदर्शन सुधरा है। उत्तर गुजरात में पाटीदार आंदोलन के चलते कांग्रेस के अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन तमाम समीकरणों के कांग्रेस के हाथ यहाँ कुछ नहीं लगा। गुजरात और हिमाचल के नतीजे एक बार फिर मोदी पर आए नतीजे हैं। भाजपा में मोदी का नाम चुनाव जीतने के लिए जरूरी हो गया है।

हिमाचल में भाजपा की जीत के लिए उसे कांग्रेस को धन्यवाद देना चाहिए। कांग्रेस ने हिमाचल में जो चेहरा चुनाव में आगे किया था। उससे लोगों को वितृष्णा थी। भाजपा के बड़े नेता यहाँ सरकार विरोधी लहर पर सवार होने के बाद भी कुछ अच्छा नहीं कर सके। भाजपा सन्गठन को  गुजरात में और हिमाचल में संघ परिवार की भारी मदद मिली।

इस चुनाव में गुजरात के हार और जीत वाली सीटों का पैटर्न काफी कुछ कह जा रहा है। तथ्य यह है कि कांग्रेस ने ग्रामीण और अर्ध-शहरी गुजरात में भाजपा को कड़ी टक्कर दी है लेकिन शहरी इलाकों में उसका सफाया हो गया है। वैसे हरेक विधानसभा चुनाव अलग होता है और एक राज्य के नतीजों का निहितार्थ दूसरे राज्यों में मतदान के लिहाज से हमेशा साफ नहीं होता है लेकिन ग्रामीण और शहरी इलाकों का यह विभेद भावी चुनावों में भी नजर आ सकता है। ग्रामीण और शहरी इलाकों के मतदान की इस खाई के आगे अहम नतीजे देखने को मिले हैं। वैसे गुजरात के शहरी इलाकों में भाजपा की ताकत अब भी बरकरार है। जीएसटी को लेकर हुए विरोध का केंद्र रहे सूरत में भी भाजपा ताकतवर बनी रही।

गुजरात हो या हिमाचल दोनों ही जगह ग्रामीण खेतिहर जातियों के युवा रोजगार की कमी के कारण गुस्से में हैं और सीमांत किसान भी कृषि के अधिक लाभप्रद नहीं रहने से परेशान हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य के प्रति भाजपा का रवैया शहरी इलाकों में खाद्य मुद्रास्फीति रोकने के लिए थोड़ा-थोड़ा मूल्य बढ़ाने का रहा है। भाजपा को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।राज्य और केंद्र सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों की इस बेचैनी पर ध्यान देना होगा। यह महत्त्वपूर्ण है कि इस साफ सियासी संकेत इस दिशा में मिलें। देश भर में फैली ग्रामीण बेचैनी के सबसे खराब लक्षणों को दूर करने के क्रम में मनरेगा योजना के तहत फंड की कमी पर भी गौर करना होगा। 

बाजारों से ग्रामीण क्षेत्रों का बेहतर संपर्क बनाने को भी प्राथमिकता देनी होगी। कृषि उत्पादों के निर्यात पर मनमाने तरीके से लगाई जाने वाली रोक बंद होनी चाहिए ताकि किसानों को भी वैश्विक स्तर पर उन उत्पादों की कीमतें ऊंची होने पर लाभ कमाने का मौका दिया जा सके। फिलहाल कीमतें कम होने पर किसानों को उसका खमियाजा खुद उठाना पड़ता है जबकि अधिक मूल्य होने पर उन्हें उसका लाभ लेने का मौका ही नहीं मिल पाता है। इसके चलते कृषि एक ऐसे खेल में तब्दील हो चुकी है जिसमें उत्पादक के प्रति पूर्वग्रह होता है। कृषि ऋण माफी जैसे लोकलुभावन कदमों से किसानों को कोई फायदा नहीं होगा। कृषि क्षेत्र के लिए बाजार-समर्थक सुधारों को लागू करना कहीं अधिक फायदेमंद होगा। इसे प्राथमिकता देना होगी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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