राकेश दुबे@प्रतिदिन। ताजा आंकड़े कहते हैं कि भारत में हर दिन 29 बच्चे सड़क हादसों में अपनी जान गंवाते हैं। बच्चों की सुरक्षा को देखते हुए 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने स्कूल बसों की सुरक्षा से जुड़े दिशा-निर्देश जारी किए थे। फिर 2005 में ऑटोमोटिव रिसर्च एसोसिएशन ने स्कूल बसों में सुरक्षा जरूरतों के लिए एआईएस मानक 063 जारी किया था। एक बड़ी दुर्घटना के घटना के बाद सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन ने कहा था कि अगर सुरक्षा में लापरवाही बरती गई, तो स्कूल की मान्यता तक रद्द हो सकती है। ये मानक किस हद तक लागू हुए, यह नहीं कहा जा सकता।
दूसरी दिक्कत यह है कि ऐसे मानक उन स्कूल वैन, आरटीवी या मिनी बसों पर लागू नहीं होते, जिन पर बड़ी संख्या में बच्चों को स्कूल लाया और ले जाया जाता है, क्योंकि ये वाहन बहुत किफायती होते हैं। मोटर वाहन अधिनियम 1988 में बच्चों की सुरक्षा को लेकर कोई निर्देश नहीं दिया गया है, हालांकि अब इस कानून में कई बदलाव किए जा रहे हैं। इसके नए स्वरूप में यह जोड़ा गया है कि चार साल से ज्यादा उम्र के बच्चों के लिए हेलमेट लगाना अनिवार्य है और 14 साल से कम उम्र के बच्चों की सुरक्षा वयस्कों को सीट बेल्ट या वाहन में बच्चों से जुड़े सुरक्षा सिस्टम लगाकर सुनिश्चित करानी होगी। यह बिल अभी कानून नहीं बना है, क्योंकि लोकसभा में तो यह पास हो गया है, मगर राज्यसभा में अभी इसका पारित होना बाकी है।
भारत में बच्चों की सुरक्षा को लेकर बने कानून अंतरराष्ट्रीय स्तर के नहीं हैं। जैसे अमेरिका के कोड ऑफ फेडरल रेगुलेशन 49, स्टैंडर्ड नंबर 213 में ‘चाइल्ड रिस्ट्रेंट सिस्टम’ का अभाव दूर करना जिससे बच्चों की सुरक्षा के लिए वाहनों की सीट या बैठने का तरीका ऐसा डिजाइन किया जाना, कि बच्चे की सुरक्षा बढ़े। इसमें बैकलेस रिस्ट्रेंट, बेल्ट से जुड़ी सीट, बूस्टर सीट, कार बैड, ऐंकर या हेलमेट इत्यादि शामिल है। भारत में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिसके तहत कार में कोई सीट सिर्फ बच्चों के लिए हो या बच्चों के हेलमेट हों। हेलमेट पहनने से गंभीर चोट से काफी हद तक बचा जा सकता है और 50 प्रतिशत तक मृत्यु का खतरा कम होता है। इसके अलावा भारत में बच्चों के लिए स्टैंडर्ड हेलमेट ही नहीं मिलते। बच्चे या तो बड़ा हेलमेट पहनते हैं, या फिर उन्हें हेलमेट पहनाया ही नहीं जाता। यह दुर्घटना के समय शिशुओं के 70 प्रतिशत और छोटे बच्चों के 54 से 80 प्रतिशत तक मृत्यु के खतरे को कम करता है।
पिछले साल भारत के दस हजार से ज्यादा बच्चों की जान सड़क हादसों में गई। ये आंकड़े तो उन बच्चों के हैं, जो सड़क पर आवागमन कर रहे थे। सड़क पर रहने वाले बच्चों की दुर्घटनाओं का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। उन्हें तो सुरक्षा की श्रेणी में भी नहीं रखा गया है, जबकि उन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।