लाखों फर्जी बीएड-डीएड डिग्रियां वैध हो जाएंगी: NCTE एक्ट 1993 में संशोधन को मंजूरी

नई दिल्ली। एनसीटीई की मंजूरी के बिना बीएड-डीएड करवा रहे संस्थानों को पिछली तारीख से मान्यता दी जाएगी। बुधवार को हुई केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में इसके लिए एनसीटीई एक्ट 1993 में संशोधन को मंजूरी दी गई। बिना अनुमति कोर्स करवा रहे संस्थानों को एक बार में ही अनुमति दे दी जाएगी, ताकि डिग्री ले चुके छात्रों को नौकरी मिल सके। काउंसिल ने सभी संस्थानों को कोर्स चलाने के लिए इस वर्ष 31 मार्च तक मंजूरी लेने को कहा था।

क्या है एनसीटीई एक्ट, क्यों बनाया
भारत की संसद ने एनसीटीई एक्ट दिसम्बर 1993 में पास किया था। संस्था के गठन की प्रोसेस अगले बरस शुरू हुई और 1995-96 में यह एक्ट पूरी तरह लागू हो गया। सन 1998 तक इसका असर पूरे देश में दिखाई देने लगा। सिर्फ पैसा कमाने के लिए बीएड के कॉरेस्पॉन्डेंस कोर्स चला रहे कॉलेज बंद होने लगे। सरकारी तथा गैर सरकारी ट्रेनिंग कॉलेजों, लाइब्रेरियों, लैब्स और सही तादाद में स्टाफ की नियुक्ति आदि पर ध्यान दिया जाने लगा। 

एनसीटीई ने किसी कोर्स या कॉलेज को बंद करने का फरमान जारी नहीं किया था। उसने सिर्फ स्टैंडर्ड तय कर दिए थे। मसलन टीचर तैयार करने के कोर्स में कितने वर्किंग डे हों, ट्रेनी-ट्रेनर का अनुपात क्या हो, ट्रेनर की क्वालिफिकेशन क्या हो, क्या-क्या इंतजाम और फैसिलिटीज हों। ये पैमाने अध्यापकों, शिक्षाविदों और विशेषज्ञों ने मिलकर बनाए थे। पहले की एक्सपर्ट कमिटियों की सिफारिशों पर गौर किया गया था। जो भी तय हुआ, वह उन सभी लोगों को मंजूर था, जो एजुकेशन की क्वॉलिटी को भारत के भविष्य के लिए जरूरी मानते हैं। 

लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ, जिसे हैरतअंगेज कहा जा सकता है। पिछले लगभग तीन बरसों में एनसीटीई ने टीचर्स ट्रेनिंग संस्थानों की तादाद 3,411 से बढ़ाकर 8,000 से आगे पहुंचा दी। इससे उन लोगों को तकलीफ हुई, जो जानते थे कि क्वॉलिटी मुश्किल से हासिल होती है। वे लोग भी दुखी हुए, जिन्होंने एनसीटीई की स्थापना के लिए दशकों तक मेहनत की थी। आज आप किसी भी छोटे-बड़े शहर में चले जाइए, बीएड कराने वाले संस्थानों की भरमार नजर आएगी। इनमें कैसी ट्रेनिंग दी जाती है, इसका अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं। सब कुछ नजरों के सामने है। 

एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक जगमोहन सिंह राजपूत कहते हैं कि अब सरकार एनसीटीई से पूरी तरह पीछा छुड़ा लेना चाहती है। क्या इसलिए कि एनसीटीई उस काम में खरी नहीं उतरी, जिसके लिए उसका गठन हुआ था? या इसलिए कि वह टीचर्स एजुकेशन में कोई रेगुलेशन की जरूरत नहीं समझती? जो लोग एनसीटीई की मौजूदा हालत से नाखुश हैं, वे भी नहीं चाहेंगे कि इस महत्वाकांक्षी प्रयोग का अचानक अंत हो जाए। होना तो यह चाहिए था कि एनसीटीई अपने भीतर झांक कर देखती। यह सोचा जाता कि उसे कैसे ताकतवर और उपयोगी बनाया जाए। कैसे उस मिशन को पूरा किया जाए, जिसके लिए उसका जन्म हुआ था। इस काम में सभी मदद करते- वे भी जो उसके तौर-तरीकों के खिलाफ हैं। किसी संस्था को खत्म करके कुछ हासिल नहीं होता। सभी शिक्षाविद इस बात पर सहमत हैं, कुछ को छोड़कर। 

इस बीच एनसीटीई ने एक ऐसा काम कर दिया है, जिस पर शिक्षा जगत में तीखा रिएक्शन हुआ है। एनसीटीई से अपने ही पैमानों को इतना कमजोर बना डाला है कि क्वॉलिटी की बात हवा में उड़ गई है। मसलन, बीएड में दाखिले के लिए 59 फीसदी मार्क्स की शर्त अब नहीं रहेगी। कॉलेजों के वर्किंग डे भी दो सौ से घटाकर 180 कर दिए गए हैं। इसी संस्था ने 1998 में जब नए कोर्स की रूपरेखा पेश की थी, तो कहा था कि एक साल की बीएड ट्रेनिंग नाकाफी है, इसे बढ़ाया जाना चाहिए। इसी सिफारिश के आधार पर देश के चार रीजनल एजुकेशन संस्थानों और गुजरात विद्यापीठ ने बीएड का दो बरस का कोर्स 1999 में शुरू किया था। उस वक्त यह सवाल उठा था कि जब एक बरस का कोर्स है, तो कोई दो बरस की ट्रेनिंग क्यों लेगा। लेकिन जल्द ही लोगों ने क्वॉलिटी के तर्क को समझ लिया। इस कोर्स को जबर्दस्त रिस्पांस मिला। आज इससे निकले टीचर्स की हर जगह तारीफ होती है। यह कैसी विडंबना है कि जिस संस्था ने यह नई राह खोली और जिससे इसे आगे ले जाने की उम्मीद की जाती थी, वही अब एक साल के कोर्स का भी समय घटा रही है, उसमें दाखिले की शरतों को कमजोर बना रहीं हैं। 

एनसीटीई ने एक और काम किया है टीचर-एजुकेटर की क्वालिफिकेशन घटाने का। कोई भी व्यक्ति, जो एमए/एमएससी के साथ बीएड कर चुका हो, अब टीचर-एजुकेटर बन सकता है। उसे एमएड, एमफिल या पीएचडी की जरूरत नहीं है। उसके लिए नेट या स्लेट पास करना भी जरूरी नहीं रह गया है। मानव संसाधन मंत्रालय के नुमाइंदे एनसीटीई की मान्य परिषद और कार्यकारी परिषद में दमदार मौजूदगी रखते हैं। इसलिए एनसीटीई के फैसले सरकार के ही फैसले माने जाएंगे। इसके बाद राज्यों को भी अपने यहां क्वालिफिकेशन घटानी पड़ेगी। आम जनता एक बुरी खबर की तरह इसे कुछ दिनों में भूल जाएगी, लेकिन भविष्य में इसके बुरे असर जरूर देखने को मिलेंगे। भारत की नई पीढ़ी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। सन 70 के बाद से एजुकेशन में क्वॉलिटी का सवाल लगातार चर्चा में रहा है। राज्य सरकारें प्राथमिक स्तर पर खुद शिक्षक तैयार करती हैं। बीएड के लिए यूनिवर्सिटियों की जिम्मेदारी थी, लेकिन फिर यूनिवर्सिटियों ने इसे पैसा कमाने का जरिया मान लिया और पत्राचार कोर्स चलाने लगीं। तब सर्वोच्च स्तर पर एनसीटीई का गठन किया गया। आज वह भी अपनी जिम्मेदारी में नाकाम दिख रही है। उसका कामकाज एजुकेशन की क्वॉलिटी गिराने वाला ही साबित हुआ है। 

इससे मानव संसाधन विकास मंत्रालय फिक्रमंद है। लेकिन एनसीटीई को खत्म करने से क्या हासिल होगा? एक बार फिर यूनिवर्सिटियों को वही जिम्मेदारी मिल जाएगी, जिसे पूरा करने में वे नाकाम रही हैं। यह सही नहीं होगा। सरकार को चाहिए कि एनसीटीई को सही रास्ते पर लाए, उसे असरदार बनाए। इसके लिए उसे एनसीटीई एक्ट के प्रावधानों का ही इस्तेमाल करना होगा। यही अकेला रास्ता है। भविष्य के लिए सबक के तौर पर यह जानना भी जरूरी है कि एनसीटीई क्यों और किनकी वजह से अपने रास्ते से भटक गई। शिक्षा जगत की चुनौती सिर्फ ज्यादा से ज्यादा फैलना ही नहीं है, उसके साथ क्वॉलिटी भी जरूरी है। क्वॉलिटी के बिना विस्तार का कोई मतलब नहीं रह जाता। 

किसी भी समाज का स्तर उसके टीचर्स के स्तर से बड़ा नहीं होता। इस हकीकत को हमें याद रखना चाहिए। समाज का स्तर तभी उठेगा, जब टीचर्स का स्तर बढ़ेगा। हम सबका फर्ज है कि ऐसा हो, और इसे लागू करना केन्द्र सरकार का काम है। 

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