राकेश दुबे@प्रतिदिन। पिछले 100 वर्षों में भारत में पृथ्वी की सतह का तापमान लगभग 0.80 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। किसी क्षेत्र में यह तापमान ज्यादा बढ़ा है, तो किसी में कम। अखिल भारतीय स्तर पर मानसून वर्षा में पश्चिमी मध्य प्रदेश, पूर्वोत्तर राज्यों, गुजरात व केरल के कुछ भागमें कमी और कुछ क्षेत्रों में जैसे पश्चिम तट, उत्तरी आंध्र प्रदेश व उत्तर-पश्चिम भारतमें वृद्धि देखी गई है। देश के मध्य व पूर्वी भागों में तेज वर्षा की घटनाएं बढ़ी हैं। मगर मानसून, सूखे व बाढ़ में कोई भी महत्वपूर्ण वृद्धि या कमी के लक्षण नहीं मिले हैं। देश के मध्य और पूर्वी भागों में तेज वर्षा के बार-बार होने की घटनाएं बढ़ी है। बंगाल की खाड़ी पर बनने वाले चक्रवाती तूफानों की कुल आवृत्ति विगत 100 वर्षों के दौरान लगभग एक समान रही है। इस सदी के दौरान भारतीय तटों पर औसत समुद्र स्तर प्रति वर्ष बढ़ रहा है।
यह सारे अनुमान भारतीय उष्ण देशीय मौसम विज्ञान संस्थान के हैं| संस्थान का माननाहै कि सदी के अंत तक सालाना औसत तापमान वृद्धि दो अलग-अलग परिदृश्यों के तहत तीन से पांच डिग्री सेल्सियस और २.५ से चार डिग्री सेल्सियस के बीच होने की आशंका है। भारत में तापमान वृद्धि देश के समस्त क्षेत्र में एक समान रहने का अनुमान है, जबकि उत्तर पश्चिम क्षेत्र में थोड़ी अधिक गरमी का अनुमान है। भारतीय मानसून भूमि, महासागर और वातावरण के बीच जटिल अंतर-क्रिया का परिणाम है। ऐसे भी अनुमान हैं कि पश्चिमी तट, पश्चिमी मध्य भारत और पूर्वोत्तर क्षेत्र में गहन वर्षा की घटनाएं बढ़ सकती हैं।
इस जलवायु में परिवर्तन महत्वपूर्ण रोगवाहक प्रजातियों जैसे मलेरिया के मच्छर के वितरण को बदल सकता है, जिसके कारण इन रोगों का विस्तार नए क्षेत्रों में हो सकता है। यदि तापमान में ३.८० डिग्री सेल्सियस की वृद्धि और इसकी वजह से आद्र्रता में ७ प्रतिशत की वृद्धि होती है, तो भारत में नौ राज्यों में वे सभी १२ महीनों के लिए मारक बने रहेंगे। जम्मू-कश्मीर और राजस्थान में उनके प्रकोप वाले समय में ३-५ महीनों तक वृद्धि हो सकती है। हालांकि ओडिशा और कुछ दक्षिणी राज्यों में तापमान में और वृद्धि होने से इसमें २-३ महीने तक कम होने की संभावना है।
जलवायु परिवर्तन ताजे पानी, कृषि योग्य भूमि और तटीय व समुद्री संसाधन जैसे भारत के प्राकृतिक संसाधनों के वितरण और गुणवत्ता को परिवर्तित कर सकता है। कृषि, जल और वानिकी जैसे अपने प्राकृतिक संसाधन आधार और जलवायु संवेदनशील क्षेत्रों से निकट रूप से जुड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश भारत को जलवायु में अनुमानित परिवर्तनों के कारण गंभीर संकटों का सामना करना पड़ सकता है। इसका सबसे बड़ा असर हमारे जल संसाधनों पर पड़ सकता है। ब्रह्मपुत्र, गंगा और सिंधु नदी प्रणालियां हिमस्खलन में कमी के कारण विशेष रूप से प्रभावित हो सकती हैं। नर्मदा और ताप्ती को छोड़कर सभी नदी घाटियों के लिए कुल बहाव में कमी आ सकती है। बहाव में दो-तिहाई से अधिक की कमी साबरमती और लूनी नदी घाटियों के लिए भी अनुमानित है। समुद्र तल में वृद्धि के कारण तटीय क्षेत्रों के निकट ताजा जल स्रोत लवण यानी खारेपन से प्रभावित हो सकते हैं।
जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए सरकार ने एक सलाहकार परिषद का गठन किया है। नागरिक के रूप में हमारे भी कुछ कर्तव्य है। देश का वातावरण निरामय हो, इस हेतु कुछ करने पर विचार करें।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।