न्यायाधिकरण और न्याय की गति | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। विधि आयोग की पिछले महीने आई 272वीं रिपोर्ट में न्यायाधिकरणों के कामकाज को लेकर असंतोष जताया गया है। इसके बाद देश में चल रहे 30 न्यायाधिकरण में से 8 को समाप्त करने का फैसला सरकार ने किया है। वैसे इस रिपोर्ट के मुताबिक कुछ और न्यायाधिकरणों के कामकाज से संबंधित आंकड़े संतोषजनक तस्वीर नहीं पेश करते हैं। हालांकि हर साल सुनवाई के लिए आने वाले मामलों की तुलना में उनके निपटारे की दर 94 प्रतिशत के साथ काफी अच्छी है लेकिन इसके बाद भी लंबित मामलों की संख्या अधिक है। शीर्ष पांच न्यायाधिकरणों पर करीब 3.5 लाख मामलों का बोझ है। आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण के पास 91538 मामले लंबित हैं जबकि सीमा शुल्क एवं सेवा कर अपीलीय अधिकरण के समक्ष 90592 और ऋण वसूली न्यायाधिकरण के समक्ष 78118 मामले लंबित हैं।

वकीलों एवं संबद्ध पक्षों की तरफ से विलंबकारी तरीके अपनाने जैसी समस्याओं का सामना इन न्यायाधिकरणों को करना पड़ता है। उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर कुछ याचिकाओं में इस पहलू की तरफ ध्यान आकर्षित कराया गया है। आयोग ने बेहद अहम मसलों पर ध्यान दिया है और कुछ बुनियादी सवाल भी उठाए हैं। अधिकांश अपीलीय अधिकरणों का गठन उच्च न्यायालयों के समकक्ष स्तर पर किया गया है लिहाजा कार्यपालिका के प्रभाव से उनकी आजादी को सुरक्षित रखा जाना निहायत जरूरी है। यह एक संवैधानिक जरूरत है। विधि आयोग का कहना है कि इन अधिकरणों का ढांचा तैयार करने वाले अधिकांश कानून संबद्ध उच्च न्यायालयों से उनका अधिकार क्षेत्र ले लेते हैं और उसे अधिकरणों के सुपुर्द कर देते हैं। हालांकि इन अधिकरणों में नियुक्ति के तरीके, योग्यता निर्धारण और कार्यकाल उच्चतम न्यायालय के विभिन्न फैसलों में निहित मानदंडों के अनुकूल नहीं होते हैं। 

न्यायाधिकरणों में लंबे समय से रिक्त पदों पर भर्ती नहीं होना इनकी कार्यक्षमता को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का ही उदाहरण लें तो इसमें जिला स्तर पर भी तीन सदस्यों का पीठ बनाने का प्रावधान रखा गया है। लेकिन एक भी ऐसा उपभोक्ता फोरम मिल पाना कठिन है जिसमें यह कोरम पूरा होता हो। दूसरे अधिकरण भी कम सदस्यों से ही काम चला रहे हैं। आयोग का सुझाव है कि किसी भी अधिकरण में किसी पद के रिक्त होने की तारीख के छह महीने पहले ही उस पर नियुक्ति की कार्रवाई शुरू कर दी जानी चाहिए। लेकिन किसी भी न्यायाधिकरण में इस सुझाव का पालन नहीं किया गया है। इसका नतीजा यह होता है कि अक्सर जनहित याचिकाएं दायर कर रिक्त पदों पर जल्द नियुक्ति की गुहार लगानी पड़ती है।

अपीलीय अधिकरणों के मामले में तो हालत और भी अधिक खराब है। आम तौर पर अपीलीय अधिकरणों में एक ही पद होता है और वह भी नई दिल्ली में होता है। आयोग का सुझाव है कि इन अपीलीय अधिकरणों की शाखाएं देश के अलग-अलग हिस्सों में गठित की जाएं। लेकिन जब सरकार मौजूदा समय में एक ही जगह नहीं भर पा रही है और उसके लिए जरूरी ढांचा मुहैया नहीं करा पा रही है तो फिर इन अधिकरणों की कई शाखाएं गठित करने के बारे में सोच पाना भी मुश्किल है। हालांकि कर अधिकरण जैसे कुछ न्यायाधिकरणों की कई शाखाएं हैं लेकिन लोकसेवकों के न्यायिक भूमिका में आने की छिपी हुई चाहत के चलते ऐसा हुआ है। सरकार अभी और छंटनी करना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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