आर्थिक मोर्चे पर नौकरशाही असफल है, चेतिए !

राकेश दुबे@प्रतिदिन। इन्हें आप मोदी भक्त या भाजपा अनुरागी कुछ भी कह सकते हैं, जिन्हें देश आर्थिक मोर्चे पर सफल दिख रहा है। वस्तुतः देश का आर्थिक मोर्चा वैसा नहीं है जैसा ये लोग समझ या समझा रहे हैं। आज मोदी सरकार के सामने असली मुद्दा निवेश, ऋण, मुद्रा आपूर्ति तथा उन तमाम बातों का नहीं है। असल मुद्दा यह है कि क्या औसत भारतीय को यह यकीन हो रहा है कि देश की सरकार कुछ गलत नहीं कर रही है या करेगी। क्या सरकार के कारकून उसे सही दिशा में ले जा रहे हैं। शायद नहीं। ऐसा किसी और सरकार में होने की मिसाल भी नहीं है। नौकरशाह अपनी तरह से चलते हैं।

आज सरकार के कटु आर्थिक आलोचक पी चिदंबरम ने भी तब कोई बहादुरी नहीं दिखाई थी। जब वे वित्त मंत्री थे। आखिरकार वह एक कमजोर वित्त मंत्री साबित हुए जो सोनिया गांधी का प्रतिरोध नहीं कर सके थे। बल्कि उन्होंने उनको प्रेरित किया कि समेकित मांग चक्र को उच्च  आपूर्ति के समक्ष ले जाएं। इसके बाद जो महंगाई बढ़ी उसके चलते वह सरकार लोगों का भरोसा ही गंवा बैठी। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार भी इन्ही कारणों से ऐसी ही स्थिति में फंसती नजर आ रही है। इस सरकार का वित्त मंत्रालय भी राजग के सर्वोच्च नेतृत्व को नोटबंदी जैसी विचित्र नीतियों को आगे बढ़ाने से नहीं रोक पा रहा है। इसके अलावा वस्तु एवं सेवा कर परिषद के रूप में एक समिति कर निर्धारण कर रही है। सवाल यह है कि ऐसी संप्रभु शक्ति किसी समिति को कैसे दी जा सकती है?

मोदी सरकार इस बड़ी समस्या से गुजर रही है, परंतु सरकार ऐसा कोई संकेत नहीं दे रही है कि उसने इस समस्या को समझ लिया है। सरकार बैंक ऋण वृद्घि और बुनियादी विकास में खर्च जैसे पुराने उपाय अपनाने में लगी हुई है। हो सकता है ये कदम जरूरी हों लेकिन ये पर्याप्त नहीं हैं। मोदी के नेतृत्व में राजनीतिक यकीन जहां पूरी तरह बरकरार है, वहीं आर्थिक नेतृत्व पर यकीन के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती। विश्व बैंक ने कारोबारी सुगमता को लेकर जो सूची जारी की है वह यकीनन मददगार साबित होगी लेकिन उतनी नहीं। मामला नौकरशाही की बाधाओं का है, न कि आर्थिक नीति का। 

इस सरकार को अब कारोबारियों और ग्राहकों के मन से सरकार की मनमानी और बेतुकी मांगों का डर निकालना होगा। यह काम आसान नहीं होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि मामला केवल राजनीतिक नेतृत्व की आश्वस्ति का नहीं है। यह नए नियमों और कानून का मामला भी नहीं। इन सबसे बढ़कर यह कम प्रशिक्षित और भ्रष्ट  नौकरशाही से जुड़ा है जिसे मोदी सरकार ने कुछ ज्यादा ही शक्तिशाली बना दिया है। सरकारें नीतियां बनाती हैं, सांसद कानून बनाकर उन नीतियों का प्रवर्तन करते हैं और हमारी नौकरशाही इन दोनों प्रक्रियाओं को नुकसान पहुंचाती है। सरकार और सांसद जहां चुनाव दर चुनाव आते-जाते रहते हैं, वहीं नौकरशाही बरकरार रहती है। विश्व बैंक की कारोबारी विश्वास संबंधी रिपोर्ट का असल संदेश यही है। इस सूची में और उपर स्थान पाने के लिए मोदी को सबसे पहले नौकरशाही को ठीक करना होगा। जिस और उसका ध्यान नहीं है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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