राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत के बैंक फंसे हुए कर्ज की समस्या से दो चार हैं। इस समस्या की एक प्रमुख वजह खराब प्रबंधन है। सरकार ने बैंकों में सुधार लाने की दिशा में कुछ प्रयास भी किए हैं। पूर्व नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक विनोद राय के नेतृत्व में बैंक बोर्ड ब्यूरो का गठन भी ऐसा ही एक उपाय रहा है। ब्यूरो को सरकारी बैंकों के शीर्ष नेतृत्व का चयन करने और उनके शासन-प्रशासन के मानक सुधारने का काम सौंपा गया पर इस ब्यूरो के पास अधिकार नहीं थे। वास्तव में इस ब्यूरो को समुचित अधिकार प्रदान किए गए होते तो यह सरकारी बैंकों की स्वायत्तता में सुधार लाने वाला एक बड़ा कदम हो सकता था।
इससे बैंकों की सक्षमता में भी सुधार होता। इसके विपरीत अब यह साबित हो चुका है कि ब्यूरो एक नखदंत विहीन संस्थान है। वैसे भी ब्यूरो बहुत अधिक प्रभावी नहीं है और सरकार भी सार्वजनिक बैंकों की स्वायत्तता बढ़ाने की दिशा में कोई और ठोस कदम उठाती नहीं दिख रही है तो क्यों इस ब्यूरो का अस्तित्व शेष है।
पीजे नायक समिति की अनुशंसाओं के क्रियान्वयन का आधा-अधूरा कदम इस ब्यूरो का गठन था था। इस समिति का गठन यह देखने के लिए किया गया था कि सरकारी बैंकों के कामकाज और उनके प्रशासन में सुधार किस प्रकार लाया जा सकता है। नायक समिति की मुख्य अनुशंसा थी एक होल्डिंग कंपनी की दिशा में आगे बढऩे की। ऐसा करके ही बैंकों के रोजमर्रा के प्रशासन और नियमन को उनके वास्तविक स्वामी यानी सरकार के हाथों से दूर किया जा सकता है। इस दिशा में पहले कदम के रूप में बैंक बोर्ड ब्यूरो के गठन का सुझाव आया।
जब ब्यूरो का निर्माण हुआ तो उसके पास कोई अधिकार नहीं थे। नायक समिति के सुझावके अनुसार ब्यूरो को सारी वरिष्ठ नियुक्तियों की निगरानी करनी थी। इसमें बोर्ड स्तर की नियुक्तियां भी शामिल थीं। लेकिन इसे इस कदर सीमित कर दिया गया कि ब्यूरो सिर्फ सरकारी बैंकों और वित्तीय संस्थानों के प्रमुखों के नाम सुझाने तक सीमित रह गया। ब्यूरो आईआईएफसीएल, आईएफसीआई, सिडबी और एक्जिम बैंक जैसे संस्थानों के प्रमुखों के नाम का नाम तय नहीं कर पाया और सरकार ने यह काम वित्त बैंक को सौंप दिया।
सरकार ने अनेक बार ब्यूरो की अनुशंसाओं की अनदेखी भी की। इन अनुशंसाओं को मंजूरी के लिए कैबिनेट के समक्ष भेजने के बजाय उनकी चीरफाड़ की गई और कई बार तो वित्त मंत्रालय ने उनको पलट भी दिया। बैंक बोर्ड के सदस्यों के चयन में उसके आधे अधूरे नियंत्रण को भी स्पष्टï महसूस किया जा सकता है। बोर्ड के कुछ नए सदस्यों मसलन गैर आधिकारिक निदेशकों के रूप में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का भी चयन किया गया। यह अपने आप में सरकारी बैंकों को राजनीति से दूर करने के लक्ष्य पर सवाल खड़े करता है। ब्यूरो की अन्य अनुशंसाओं की बात करें तो सरकारी बैंकों के वरिष्ठï अधिकारियों के वेतन भत्तों और फंसे हुए कर्ज से निपटने के मुद्दे पर भी उसे वित्त मंत्रालय की मंजूरी नहीं मिल सकी। ऐसे में सरकार को या तो सरकारी बैंकों की स्वतंत्रता और सुधार का उचित खाका पेश करना चाहिए या फिर उसे दिखावा समाप्त करते हुए बैंक बोर्ड ब्यूरो को भी बंद कर देना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।