आभासी दुनिया में धंसता जा रहे भारतीय बचपन की परिणिति मौत !

राकेश दुबे@प्रतिदिन। व्यवस्तता और बेहतर जिन्दगी की अंधी दौड़ में कामकाजी माता पिता अपने बच्चों को समय देने की जगह उन्हें मौत का सामान मुहैया करा रहे है। यह नतीजा मुंबई में वीडियो गेम के प्रभाव में हुई एक 14 वर्षीय छात्र की आत्महत्या से निकल कर सबको सकते में डाल रहा है। यह बात अलग है कि पुलिस ने अभी मौत के कारण की पुष्टि नहीं की है, लेकिन शुरुआती जांच का नतीजा यही है कि आत्महत्या करने वाला यह यह लड़का 'ब्लू वेल' नाम का इंटरनेट गेम खेल रहा था। यही से याद आता है 50-60 के दशक का देश और उस समय खेले जाने वाले खेल और तत्समय रचा बाल साहित्य। तब खिलौने भी सस्ते या परिवार में बने होते थे और अधिकतर खेल शारीरिक शौष्ठव को बढ़ाने वाले होते थे। हिंदी अंग्रेजी में रचा बाल साहित्य भाषा, भूषा और संस्कार का ज्ञान देता था। अब समय बदल गया है। अब खेल शारीरिक और बौद्धिक विकास की परिधि को लांघ कर एक आभासी संसार का भ्रम पैदा करते हैं, जिसकी परिणिति मुम्बई जैसे मामले पैदा कर रहे है।

मुम्बई में किशोर की जान लेनेवाले इस कथित खेल “ब्लू वेल” में 50 दिनों तक अलग-अलग चुनौतियाँ दी जाती हैं, जिसमें आखिरी चुनौती आत्महत्या होती है। इस जानलेवा खेल की शुरुआत रूस में 2013 में हुई थी और इसे बनाने का दावा करने वाला अभी जेल में है, लेकिन खेल फिर भी चलन में बना हुआ है। अगर यह खुदकुशी इस खेल की वजह से हुई है तो भारत में यह इस तरह की पहली मौत है, लेकिन विदेशों में इसके कारण मरने और घायल होने वाले बच्चों की संख्या अच्छी-खासी है। वहां के कामकाज के तरीकों की नकल कर भारत में भी इस प्रकार के खेलों का चलन कामकाजी माता-पिता बढ़ा रहे हैं। बाल साहित्य का सृजन हाशिये पर पहुंच रहा है और वीडियो के माध्यम से खेले जा रहे खेल का प्रतिशत बढ़ रहा है।

कभी कल्पना करना असंभव था अब हम विचार करने पर विवश हैं कि जो खेल, किसी को आत्महत्या तक ले जा सकते है, उनसे कैसे निबटे ? बच्चे और युवा जिस आभासी दुनिया में अपना अधिक से अधिक समय बिताने लगे हैं, उसका भयावह पक्ष धीरे-धीरे उजागर हो रहा है। कुछ दिन पहले एक अन्य खेल 'पॉकेमॉन गो' के चलते सड़क दुर्घटनाओं की खबरें आई थीं। 

देखा जाए तो आज बच्चों के जीवन के तीन बड़े हिस्से हैं -घर पर मां-बाप के साथ बीतने वाला समय, स्कूल में गुजरने वाला समय और मोबाइल या लैपटॉप की दुनिया को समर्पित समय। इनमें मां-बाप के साथ गुजरने वाला वक्त लगातार सिकुड़ रहा है। इसका बड़ा कारण छोटे से छोटे होते परिवार हैं। जिसमें किसी को किसी के लिए समय नहीं है।

कामकाजी मातापिता को इतनी फुरसत नहीं कि बच्चे के साथ हर दिन कुछ समय यूँ ही गुजार सकें, दादा-दादी, नाना-नानी और अन्य पारिवारिक रिश्ते छीजते जा रहे हैं। स्कूल का समय ज्यों का त्यों है, लेकिन स्कूलों में बच्चे खुद को दबाव में महसूस करते हैं। इसके विपरीत आभासी दुनिया ही उसकी अपनी दुनिया होती है, जहां सबकुछ उसके नियन्त्रण में होता है, उस दुनिया के सारे पात्र उसके दोस्त होते हैं। इस दुनिया में विचरता हुआ वह कब इसके कब्जे में चला जाता है, इसका अंदाजा किसी को नहीं हो पाता। इस प्रकार की आत्महत्या एक चौकाने वाली बात नहीं। जरूरी चेतावनी है, इस मायाजाल में फंसे बच्चे और बड़े हमें अपने आसपास दिखने लगे हैं। बचाव सिर्फ एक है कि मां-बाप आभासी दुनिया में बच्चों की आवाजाही का ध्यान रखें और स्कूल उनमें इसके प्रति आलोचनात्मक सोच विकसित करें और समाज बेहतर बाल साहित्य और खेल सृजित कर बचपन के एकाकीपन को दूर करे।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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