राकेश दुबे@प्रतिदिन। लालू की महारैली से आज ये समझ में आने लगेगा कि देश में एक नए 'भाजपा विरोधी' गठबंधन की शुरुआत हुई है या नहीं ? वैसे सारे विपक्ष को ये समझ में आ गया है कि भाजपा से अगर लड़ना है तो सब को अपने मतभेद भुलाकर एक मंच पर आना होगा। परन्तु , क्या सारे विपक्ष ने सही मायनों में 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है? क्या कांग्रेस ने भी ये मान लिया है कि भाजपा को हराने के लिए समूचे विपक्ष के साथ सांझा रणनीति बना कर ही चलना होगा? क्या शरद यादव वो ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाले हैं जो कभी 1989 चुनाव के पहले देवी लाल और एनटी रामाराव ने अदा की थी? क्या शरद यादव के द्वारा बुलाया गया 'सांझी विरासत’ सम्मेलन उस मुहिम की शुरुआत है? यह सारे सवाल हैं, जो देश की राजनीति में इन दिनों खड़े हैं। इसके विपरीत भाजपा जिस तरह से एक के बाद एक विधानसभा चुनाव जीत रही हैं, उससे देश में प्रतिपक्ष विहीन राजनीति को बल मिलता है।
उत्तर प्रदेश की भारी जीत के बाद एक सवाल काफी तेजी से खड़ा हुआ था कि विपक्ष पूरी तरह से निराश है, पस्त है। सच में अभी उसके पास न तो चेहरा है, न ही कोई एजेंडा, न ही कोई संगठन जो भाजपा को कड़ी चुनौती दे सके? जबकि भाजपा ने अभी से काफी तेजी से चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। अमित शाह देश भर का दौरा कर रहे हैं और संगठन के सामने 350 सीटें जीतने का लक्ष्य रख रहे हैं? ऐसे में विपक्ष कहां है? ये एक बड़ा सवाल है।
जिस तरह से लालू की रैली के समाचार आ रहे अथवा दिल्ली में हुए सांझी विरासत सम्मेलन दोनों ही भाजपा को हराने का खाका बना सकते थे बशर्ते ये कहीं एक जगह होते अभी भी ऐसा लगता है कि सब को साथ बैठना पड़ेगा। एक साथ आवाज बुलंद करनी पड़ेगी। एक साझा एजेंडा तय कर चुनावी जंग में उतरना पड़ेगा। इसके तात्कालिक कारण भी है और दीर्घकालिक भी। तात्कालिक कारण, लालू यादव पर पिछले दिनों जिस तरह से जांच एजेंसियों ने घेरा डाला और पूरे परिवार को लपेटे में लिया। उससे विपक्षी खेमे में चिंता की लकीरें जरुर खिंची, पर सब एक नहीं हुए, हो भी नहीं सकते है। सब के अपने राग द्वेष हैं। दूसरा भाजपा की आक्रमक रणनीति, जो उसने काफी पहले संघ परिवार के साथ तय की है।
इस का अर्थ साफ है कि अभी भाजपा के निशाने पर सब हैं और सबके निशाने पर भाजपा है। ऐसे तो विपक्ष कभी खड़ा नहीं हो पाएगा। इसके विपरीत भाजपा विपक्षी खेमे में ऐसे ही सेंध लगाती रही तो विपक्ष का खड़ा होना मुश्किल दिखता है, जो प्रजातंत्र के लिए ठीक नहीं है। राजनीति के एकांगी होने का खतरा है, जिसे विपक्ष को महसूस होना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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