फिल्मों की समीक्षा और समीक्षक

राकेश दुबे@प्रतिदिन। हाल ही में आई इम्तियाज अली की फिल्म 'जब हैरी मेट सेजल'रवानगी से भरपूर एक रोचक फिल्म है, पर इसे समीक्षकों ने नकार दिया है। आलोचकों की तीखी टिप्पणियों के बाद सोशल मीडिया में भी इसे लेकर काफी नकारात्मक बातें कही जा रही थीं। ऐसा तब है जब इस फिल्म ने अपने प्रदर्शन के पहले सप्ताहांत में ही बॉक्स ऑफिस पर 100 करोड़ रुपये का आंकड़ा पार कर लिया।  आज बात एक फिल्म समीक्षक या फिल्म आलोचक की भूमिका पर है। आखिर उसका क्या काम होता है? उसका काम किस तरह से बदल रहा है? क्या समीक्षक अब भी प्रासंगिक बने हुए हैं?

सवाल यह है कि फिल्म समीक्षक कौन होता है? फिल्म अध्येता बारबरा एल बेकर ने 2016 में वेबसाइट कोरा पर बताया था कि फिल्म समीक्षा के तीन तरीके होते हैं। पहला तरीका लोकप्रियता या मनोरंजन पहलू का आकलन है। इस तरह की समीक्षाएं दर्शकों की टिप्पणियों या सुझावों के जरिये सामने आती हैं। यानी एक सफल फिल्म वह है जो ढेर सारा पैसा कमाती है। दूसरे तरीके का इस्तेमाल पेशेवर फिल्म समीक्षक करते हैं। समाचारपत्रों या पत्रिकाओं के लिए समीक्षाएं लिखने के लिए ये लोग फिल्म की गुणवत्ता मापने के तौर-तरीके आजमाते हैं। वे फिल्म को उसकी मौलिकता, दर्शकों के लिए प्रासंगिकता या फिल्म तकनीकों के उम्दा इस्तेमाल के आधार पर आंकते हैं। क्या कोई फिल्म आपको सोचने के लिए बाध्य करती है,भावनात्मक तौर पर उद्वेलित करती है या मानवीय संवेदनाओं के एक नए सिरे को उद्घाटित करने की कोशिश करती है, जैसे पैमाने पर ये आलोचक फिल्मों को तौलते हैं। उनका आकलन फिल्म की लोकप्रियता जैसे पहलू को पूरी तरह नजरअंदाज करता है।

तीसरे तरह के फिल्म आलोचक विश्लेषणात्मक प्रक्रिया का सहारा लेते हैं लेकिन यह विधा अक्सर शोध पत्रों और अकादमिक कार्यों के लिए इस्तेमाल की जाती है। स्पष्ट है कि पेशेवर भारतीय समीक्षकों का एक बड़ा हिस्सा फिल्म समीक्षा के दूसरे तरीके का ही इस्तेमाल करता है। वे समीक्षा के दौरान लोकप्रियता वाले पहलू पर शायद ही अधिक ध्यान देते हैं। सामाजिक परिप्रेक्ष्य को भी उनके एजेंडे में बहुत तवज्जो नहीं मिलती है। सूरज बडज़ात्या की 2006 में आई फिल्म विवाह को समीक्षकों ने उसके परंपरावादी मूल्यों के चलते उसे रूढि़वादी करार दिया था। अधिकतर समीक्षक सीधे-सपाट अंदाज में कहानी बयां करने वाली फिल्मों के प्रति पक्षपाती होते हैं। समीक्षक अस्तित्ववादी और सघन फिल्मों को लेकर भी आग्रही होते हैं।

बहरहाल जिस तरह समीक्षकों को अपनी पसंद और नजरिये के हिसाब से फिल्मों को आंकने का अधिकार है, उसी तरह दर्शकों को भी हक है। समस्या तब होती है जब दोनों में से कोई भी पक्ष अपनी चाहत को दूसरे पर थोपने की कोशिश करता है। अनुराग कश्यप की गैंग्स ऑफ वासेपुर सीरीज काफी पसंद की  गई थी, लेकिन सिनेमाघर से निकलते समय ऐसा लगा कि इसमें कोई कहानी ही नहीं थी। हालांकि उन फिल्मों को ऊंची रेटिंग देने वाले समीक्षक इस राय से इत्तफाक नहीं रखते हैं। क्या कोई ऐसी जगह हो सकती है जहां आलोचक, दर्शक, लोकप्रिय सिनेमा और बाजार सभी एक-दूसरे से तालमेल बिठा पाएंगे? सच तो यह है कि इस तरह की विषयनिष्ठ चर्चाओं में कभी भी स्पष्ट जवाब नहीं मिल पाते हैं। 
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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