भारत लैंगिक भेद का बढ़ता दायरा

राकेश दुबे@प्रतिदिन। विश्व आर्थिक मंच के लैंगिक भेद सूचकांक में महिला और पुरुष में भेद मिटाने संबंधी वैश्विक आकलन कार्यक्रम की सूची में भारत को 136 देशों की सूची में 101वां स्थान दिया गया। इसमें दो राय नहीं कि महिलाओं को अभी भी दोहरे मानकों का सामना करना पड़ता है और कार्यस्थलों पर वरिष्ठ पदों पर उनके लिए गुंजाइश बहुत सीमित है। कहने का तात्पर्य यह है कि महिलाओं को लेकर कंपनियों में अभी भी तमाम पूर्वग्रह हैं। इस दलील में भी काफी सच्चाई है कि देश में महिला कर्मचारियों को अभी भी समान काम के वास्ते समान वेतन जैसी समानता हासिल करने के लिए बहुत लंबी लड़ाई लडऩी पड़ रही है। 

पुरुषों और महिलाओं पर किए गए कार्यस्थलीन सर्वेक्षण में जहां 80 प्रतिशत  प्रतिभागियों ने कहा कि उनके काम करने की जगह पर यौन शोषण होता है। जबकि 53 प्रतिशत लोगों ने कहा कि काम के दौरान महिलाओं और पुरुषों को समान अवसर नहीं हैं। प्रबंधन अक्सर पीडि़तों पर यह दबाव बनाता है कि वे अपनी शिकायत वापस ले लें। 

प्रोइव्स द्वारा किए गए जेंडर बैलेंस इंडिया सर्वे से पता चलता है कि भारत के कॉर्पोरेट जगत में महिलाओं की भागीदारी 20-22 प्रतिशत है। वरिष्ठ और शीर्ष स्तर पर यह भागीदारी घटकर 12-13 प्रतिशत रह जाती है। महज नेक इरादे जताने से कुछ नहीं होता है। साठ फीसदी से अधिक कंपनियों ने कार्यस्थल पर महिला-पुरुष समानता को लेकर इरादे जाहिर किए हैं और 83 प्रतिशत ने संगठनात्मक स्तर पर इसका आकलन किया है। समस्या कहीं और है। 

कुल मिलाकर संदेश यह है कि महिलाओं को वहां नहीं होना चाहिए और वे केवल आंकड़े बढ़ाने के लिए वहां होती हैं। यह भी एक वजह है जिसके चलते बोर्ड रूम में महिलाओं के आरक्षण की मांग को खारिज किया जाता है। कॉर्पोरेट जगत में कई लोग कहते हैं कि हर चीज को महिला-पुरुष समानता की कमी पर थोपना फैशन हो गया है। उनके मुताबिक सच्चाई यह है कि कारोबारी जगत के दरवाजे तो खुले हैं लेकिन अलहदा और अधिक संतुलित जीवन की तलाश में महिलाएं इसमें शामिल होने की इच्छुक ही नहीं दिखतीं। वहीं विभिन्न सीईओ कहते हैं कि कॉर्पोरेट बोर्ड अपने मुनाफे को लेकर ही इतने चिंतित हैं कि वे इस बात पर ध्यान देने की स्थिति में नहीं हैं कि बोर्ड सदस्य के रूप में किसे चुना जाए किसे नहीं। 

कनिष्ठ से वरिष्ठ तक के सफर में भारत में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत तेजी से कम होता है। इसमें महिला-पुरुष भेदभाव की बहुत अधिक भूमिका भी नहीं है। उदाहरण के लिए कई महिलाएं अपनी उच्च शिक्षा या करियर को विवाह या संतानोत्पत्ति के कारण विराम दे देती हैं। यही वजह है कि उम्र के दूसरे और तीसरे पड़ाव के बीच कई महिलाएं अपना करियर त्याग देती हैं क्योंकि उनको लगता है कि वे दोनों भूमिकाओं से न्याय नहीं कर पा रही हैं। विभिन्न भारतीय कंपनियों का प्रबंधन कहता है कि उनका इस बात पर कोई नियंत्रण नहीं है कि महिला कर्मचारी कब काम छोड़ दें या दोबारा आना चाहें। लचीली काम संबंधी नीतियां या लंबी छुट्टियां उन लोगों की थोड़ी बहुत मदद करती हैं जो अपने करियर को लेकर गंभीर हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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