राकेश दुबे@प्रतिदिन। न्यायिक क्षेत्र में एक मुहावरा काफी चर्चित है “ जस्टिस इज डिलेड मीन्स जस्टिस आर डिनाइड “। देश की शीर्ष अदालत ने इस मुहावरे के अर्थ को डिजिटल माध्यम से बदलने को कोशिश की। अक्टूबर 2006, जीहाँ! अक्तूबर 2006 में भी यह घोषणा की गई थी कि ई-फाइलिंग व्यवस्था शुरू की जा रही है। एक दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी अदालत पर कागजों का बोझ बढ़ता ही जा रहा है। हालत तो यह हो गई है कि न्यायालय के गलियारों में भी फाइलों का ढेर लगा है, जिसने चलने की आधी जगह भी घेर ली है। भविष्य ई-न्यायालयों का है तो अदालती परिसर छोटे होते जाने चाहिए। विकसित देशों में साइबर लहर अब कानूनी पेशे को भी अपने आगोश में लेने लगी है।
हालांकि निचली अदालतों को निर्देश देने के लिए शीर्ष स्तर पर एक ई-समिति बनी हुई है लेकिन उच्च न्यायालयों और जिला अदालतों की इलेक्ट्रॉनिक प्रगति की हालत काफी खस्ता है। कुछ गिने-चुने उच्च न्यायालयों की ही वेबसाइट वकीलों के लिए मददगार साबित होती हैं। राष्ट्रीय महत्त्व के विभिन्न सामाजिक एवं आर्थिक मसलों पर उच्च न्यायालय अपने अधिकार-क्षेत्र में सुनवाई करते हैं और उन पर फैसला देते हैं। लेकिन इन फैसलों से झलकने वाली न्यायाधीशों की विद्वता और बुद्धिमत्ता आम लोगों तक नहीं पहुंच पाती है क्योंकि लोग उन फैसलों को वेबसाइट पर देख ही नहीं पाते हैं।इसका एक पक्ष और है न्यायाधीश ही अपने फैसले पर यह चिह्नित करते हैं कि उन्हें वेबसाइट पर अपलोड किया जाए या नहीं। वेबसाइट पर अपलोड होने से स्थानीय समाचारपत्रों के रिपोर्टरों को भी उन फैसलों के बारे में पता चल जाता है। वर्षों से चली आ रही इस विडंबना पर अब तक किसी भी न्यायाधीश ने गौर नहीं किया है। इतना ही नहीं, अदालत अपनी ही वेबसाइट पर डाली गई सामग्री की प्रामाणिकता को लेकर भी उपभोक्ताओं को आगाह करता है।
कई अन्य उच्च न्यायालयों की वेबसाइट भी आम लोगों की कोई मदद नहीं कर पाती हैं। इसकी वजह यह है कि ये वेबसाइट अपने ही डिजाइन से संचालित होती हैं। केवल स्थानीय वकीलों को ही उन वेबसाइट की सामग्री देख पाने की इजाजत होती है जबकि मुवक्किलों को वेबसाइट पर जाने के लिए भुगतान करना होता है। इस तरह उच्च न्यायालयों के फैसले चाहे कितने भी अहम क्यों न रहे हों लेकिन बाकी दुनिया के लिए उनके दरवाजे असल में बंद ही रहते हैं।
सभी अदालतों के लिए एकसमान परिपाटी अपनाई जानी चाहिए। इसी तरह विभिन्न न्यायाधिकरणों की वेबसाइट भी एक ही परिपाटी पर बनाई जानी चाहिए। इनमें से कई न्यायाधिकरणों की वेबसाइट का तो महीनों से अद्यतन भी नहीं किया जाता है। आज के समय में समाज अदालतों की शक्तियों का बखूबी अहसास कर रहा है और शासन के अन्य अंगों से निराश होने पर उसे न्यायपालिका से ही आस लगी होती है। ऐसे में अदालतों का डिजिटल होना समय की मांग बन चुका है। महामहिम महोदय, इस अपील पर भी गौर कीजिये। न्यायालय जल्दी डिजिटल हो, इस पर भी कुछ सोचिये।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
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