शिक्षा का अधिकार और फिसड्डी सरकार

राकेश दुबे@प्रतिदिन। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह प्रदेश के सरकारी स्कूलों को विद्या भारती को देने की पेशकश कर चुके हैं। भारत सरकार नियंत्रक महा लेखापरीक्षक ने संसद में इस बारे में देश भर की जो रिपोर्ट प्रस्तुत की है, उसका सार निकलता है कि “शिक्षा के अधिकार” की बुरी दशा है।  सच में शिक्षा के अधिकार का राज्य सरकारों ने बुरा हाल कर रखा है, जिससे सिद्ध होता है कि हमारे नेतृत्व वर्ग को शिक्षा की कोई परवाह नहीं है। कुछेक अपवादों को छोड़कर यह कानून नौकरशाहों के खाने-पकाने का जरिया बनकर रह गया है। इससे ज्यादा और कुछ नही।

नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने शुक्रवार को संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में आरटीई को लेकर हो रही गड़बड़ियों का खुलासा किया है। उसने ध्यान दिलाया है कि इसके तहत जो पैसे दिए जाते हैं, वे खर्च ही नहीं हो पाते। रिपोर्ट के अनुसार राज्य सरकारें कानून लागू होने के बाद के छह सालों में उपलब्ध कराए गए कुल फंड में से 87000 करोड़ रुपये का इस्तेमाल ही नहीं कर पाईं। उसने यह भी ध्यान दिलाया कि 2010-11 से 2015-16 के बीच वित्त वर्ष की समाप्ति पर दिखाए गए खाते इस दुर्द्शा की कहानी कहते हैं।

पारदर्शी तरीके से कुछ भी नहीं हो रहा। कागज पर लीपापोती हो रही है, अनाप-शनाप खर्च किए जा रहे हैं लेकिन जरूरतमंद बच्चों को शिक्षा दिलाने का मुख्य उद्देश्य गौण होकर रह गया है। शिक्षा का अधिकार कानून के तहत शुरुआती तीन वर्षों में सरकार को स्कूलों की कमी दूर करनी थी। लेकिन सात साल के बाद भी स्कूल नहीं बने हैं। दिल्ली, उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में स्कूल टेंटों या खुले में चल रहे हैं। बीते सात सालों में अगर गंभीरता से काम हुआ होता तो सरकारी स्कूलों की दुर्दशा दूर हो गई होती और आंख मूंदकर निजी स्कूलों की ओर भागने के सिलसिले पर भी थोड़ी-बहुत रोक लगी होती। 

अब हालत यह है कि हर व्यक्ति अपने बच्चों को निजी स्कूल में ही भेजना चाहता है। कैग की ही एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार सरकारी स्कूलों में वर्ष 2010-11 में कुल नामांकन 1 करोड़ 11  लाख था, जो 2014-15 में 92 लाख 51 हजार रह गया है, जबकि निजी स्कूलों में छात्रों की संख्या 2011-12 से 2014-15 के बीच 38 प्रतिशत बढ़ी है। प्राइवेट स्कूलों की नजर हमेशा की तरह सिर्फ मुनाफे पर ही है।

एक संस्था का अध्यन बताता है कि बीते दस सालों के दौरान निजी स्कूलों ने अपनी फीस में लगभग 150 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है। ऐसे में जरूरतमंद बच्चे कहां जाएं? अनिवार्य शिक्षा आज भी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाई है। वैसे भी जो ताकतवर तबका राजनीति और प्रशासन पर असर डाल सकता है, उसे सरकारी स्कूलों से कोई मतलब नहीं है। दूसरी ओर गरीबों के लिए रोजी-रोटी की समस्या की गंभीर समस्या है, उनके लिए मिड डे मील ही एक बड़ी राहत हैं, बेहतर शिक्षा के लिए आवाज उठाने की बात तो इस तबके के लिए बेमानी है। यदि भारत को शिक्षित समाज चाहिये है तो सरकार को जीएसटी से बहुत अधिक ध्यान और प्रयास शिक्षा के अधिकार की दिशा में करना होंगे।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए
आप हमें ट्विटर और फ़ेसबुक पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं।

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Accept !