आपातकाल: कोई भी जवाबदेही को तैयार नहीं

राकेश दुबे@प्रतिदिन। कल अर्थात 25 जून 2017 को देश में सर्वाधिक लम्बे और क्रूर आपातकाल को 42 बरस हो जायेंगे। 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लगा था, तत्समय देश के विभिन्न तबकों के साथ सबसे ज्यादा इसे तत्कालीन “प्रेस” वर्तमान में मीडिया ने भोगा था और अब तक भोग रहा है। आपातकाल के जो तत्समय विरोधी थे उनमे से एक बड़ा धडा आज केंद और आधे से ज्यादा राज्यों में सत्तासीन है। दुर्भाग्य से पूत के पांव पालने में दिखते हैं कि भांति संदेह हो रहा है कि हर कभी इंटरनेट सेवा बंद करना, जैसे कदम किसी “ बड़े आपातकाल” के संकेत तो नहीं है। तब भी सत्ता विकल्प के अभाव से निरंकुश हुई थी और अब तो प्रतिपक्ष का आकार अत्यंत लघु है और उसमें  कोई ऐसा चमत्कारिक व्यक्तित्व भी नही दिखता जो हनुमान की भूमिका निभा सके और  वक्त आने पर खुद का और अपनी पार्टी का आकार बड़ा-घटा सके। 1975 में भी सरकार ने आपातकाल की जवाबदेही नही मानी थी, और अब तो  दूर-दूर तक इसके कोई आसार नजर नहीं आते।

उस आपातकाल की बहुत सी सत्य कथाएं और जीवित पात्र समाज में मौजूद हैं। मध्यप्रदेश के विशेष सन्दर्भ में देखा जाये तो 5620 अर्थात सबसे ज्यादा लोकतंत्र सेनानी मध्यप्रदेश से ही गिरफ्तार किये गये थे। इंदौर के एक अख़बार के तो पूरे संचालक और सम्पादक मंडल को तत्समय जेल में डाल दिया गया था। इस अख़बार के नाम से शासकीय वैमनस्यता अब तक जारी है। 1980 के दशक में इसके भोपाल और ग्वालियर संस्करण के प्रधान संपादक और भोपाल संस्करण के संपादक एक शिकायत पर गिरफ्तार किये गये और संपादक जी स्वर्गीय हो गये प्रधान संपादक जी तब से आज तक जमानत पर हैं। कल 23 जून 17 को ये प्रधान संपादक जी हबीबगंज रेलवे स्टेशन पर मिले। उन्होंने बताया कि आपातकाल के बाद दर्ज़ इस मुकदमे  में उनकी गिरफ्तारी और जमानत हुई है, यह सच है। मुकदमा कहाँ है और किस स्थिति में है, उन्हें नहीं मालूम। न तो उन्हें सरकार ने मुकदमें की वापिसी की सूचना दी और न उन्होंने ही पूछा।

अब 2017 में आ जाएँ। भोपाल में एक छोटे तनाव और मंदसौर के भारी तनाव में सरकार ने इंटरनेट बंद कर अपनी प्रजातांत्रिक असभ्यता का परिचय तो दिया, पर खुलकर जवाबदेही या जिम्मेदारी  नही, मानी। सरकार उपवास पर और प्रतिपक्ष नानी के घर लोरी सुनने चला गया। इसी आहट के बीच लोकतंत्र सेनानी संघ का एक सम्मेलन भी भोपाल में हो गया। इसमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की तरह कुछ फर्जी लोकतंत्र सेनानी हैं, जैसा  मुद्दा सामने आया। प्रदेश के पुलिस मुख्यालय की विशेष शाखा में आपातकाल से सम्बन्धित कोई अभिलेख उपलब्ध न होने की जानकारी के साथ एक पूर्व बड़े अफसर द्वारा इसे नष्ट करने की बात जिम्मेदार सूत्र कह रहे हैं। प्रश्न जवाबदेही का है 1975 से आज तक की सरकार, इन घटनाक्रमों से मुंह क्यों छिपाती हैं। प्रजातंत्र जवाबदेही से चलता है, मुंह छिपाने या नकारने से नहीं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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