भोपाल: बदशक्ल राजनीति की, आईने को तोड़ने की कोशिश

राकेश दुबे@प्रतिदिन। मंगलवार रात भोपाल में जो कुछ घटा वह अप्रत्याशित नहीं था। बहुत दिनों के मंसूबे और उसकी राजनीतिक हिमायत का ही नतीजा था। अपनी सूचना तंत्र की आँखों पर बंधी पट्टी को न खोलने और प्रजातंत्र की परिभाषा में समाज के बड़े हिस्से की अनदेखी के परिणाम की बानगी थी यह। सरकार को अभी भी सबक लेना चाहिए, उन सभी तत्वों से वोट की चिंता के बगैर कड़ाई से निबटना चाहिए जो उंगली पर गिने जा सकते है, जिनके कारण पूरी कौम बदनाम हुई और रमजान में सबके कल्याण की दुआ का मकसद बदल गया।

इसकी इबारत भोपाल की स्थानीय सरकार अर्थात भोपाल नगर निगम द्वारा राजा भोज सेतु के निर्माण की आयोजना से  जुडी है। पुराने भोपाल के लोग इस सेतु को अब किसी ओर नाम से पुकारने लगे हैं। यह सब चंद दिनों में नही हुआ। पुल तो अभी खुला है, उसके निर्माण की कहानी उसके मजबूर पहलू को मजबूत बनाने का निर्णय इस सबकी जद में रहा है। महापौर आलोक शर्मा को पान की पीक से लाल पुल को बेवजह साफ़ नही करना पडा। दबाव थे और हैं।

हमीदिया अस्पताल के स्टोर से निकला पत्थर भोपाल की उस रवायत का निशान है जो कर्तव्य में प्राणोत्सर्ग  की याद दिलाता है। इस युद्ध के शहीदों की सूची किसी अभिलेखागार में नही है पर इतिहासकार उस काल के  छोटे तबके के बड़े बलिदान की हिमायत में दिखते हैं। यह सब जानते समझते सरकार की आँखों की पट्टी मंगलवार शाम तक बंधी रहना भोपाल की संस्कृति के साथ अपराध है। जिस पत्थर को अब साक्ष्य के रूप में सरकार दिखा रही है, वह उस दिन भी तो दिखाया जा सकता था, जब वहां धार्मिक आयोजन के लिए खतो-किताबत हुई थी।

पत्थर कदीमी है, पर उसे स्टोर में रखे जाने की बात ज्यादा पुरानी नहीं है। हमीदिया अस्पताल के दवा स्टोर के बगल से पार्किंग शेड बनाते समय ऐसे अभिलेख निकलने के समाचार कुछ ही सालों पहले ही छपे थे। भोपाल को भोपाल बनाने वाले महापुरुषों की प्रतिमा, अनेक छोटे बड़े धार्मिक स्थल भोपाल के विकास के लिए स्थानांतरित हो सकते है या हटाये जा सकते है और हटाये गये हैं, तो जबरन किसी जगह पर कुछ भी करवाने की लिखित और मौखिक अपील का होना और उसकी अनदेखी ने ही यह सब कुछ करा धरा है। भोपाल की सर्वधर्म समभाव की तहजीब को सरकारी समर्थन की दरकार है, चुनाव तो आते जाते रहते हैं और रहेंगे। शहर की तहजीब बचाना जरूरी है।

इंटरनेट बंद करना किसी समस्या का फौरी इलाज हो सकता है। बीमारी दृढ़ संकल्प से ठीक होती है, भोपाल में 56 इंच के सीने की दरकार नहीं। 5-6 इंच की मुस्कुराहट ने बड़े-बड़े मसले हल किये है। इसकी बिसात ही क्या है? कमला पार्क से जलहरी मिलना या कहीं खुतबे का निकलना आम बात है, पर उस पर ठीक निर्णय लेना भी छोटी बात नही है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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