खतरनाक: मिट्टी के 90 प्रतिशत पोषक तत्व खत्म हो गए

भोपाल। यह एक खतरनाक खबर है। खेतों की मिट्टी में अब पोषक तत्व ही नहीं रहे। वो लगभग पूरी तरह से खत्म हो गए हैं। अब खेतों में जो भी फल, अनाज या सब्जियां पैदा हो रहीं हैं उनमें लाभदायक कुछ भी नहीं है। अलबत्ता रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग के कारण वो सब स्वास्थ्य के लिए काफी खतरनाक होती जा रहीं हैं। जल्द ही लोग फल, अनाज या सब्जियां खाने के कारण बीमार पड़ने लगेंगे। 

बरसात की फुहारें पड़ते ही घर-आंगन में रेंगने वाला देशी केंचुआ अब नहीं दिखता। पहले खेत के एक वर्गमीटर क्षेत्र में करीब 100 केंचुएं मिल जाते थे, आज यह संख्या महज 10 से 15 ही बची है। मिट्टी की 'आत्मा" इस जीव का वजूद फसलों में जहरीली खाद, कीटनाशक के बेजा इस्तेमाल होने से खत्म होने की कगार पर है। इसी तरह पहले एक चम्मच मिट्टी में लाखों पोषक तत्व मिलते थे, अब उनकी संख्या 100-200 रह गई है। भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान की एक रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है।

भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान के मृदा भौतिकी विभाग के अध्यक्ष डॉ.आर एस चौधरी के मुताबिक नरवाई जलाने, केमिकल के बेजा इस्तेमाल से मिट्टी के जैविक तत्व तेजी से खत्म हो रहे हैं। केंचुआ के अलावा चींटी, मकड़े, शंख, घोंघे, वेक्टीरिया, फंगस आदि मिट्टी की उर्वरा शक्ति को लगातार पोषित करते रहते थे। लेकिन फर्टिलाइजर,पेस्टीसाइड के जहर ने मिट्टी में उनका अस्तित्व लगभग खत्म ही कर दिया है। मिट्टी मृत प्राय हो गई है।

हरित क्रांति के साथ शुरू हुई दुर्दशा
कृषि विशेषज्ञ और पूर्व कृषि संचालक डॉ.जीएस कौशल बताते हैं कि 1960-70 में हरित क्रांति की शुरूआत के बाद से यह स्थिति बन रही है। पहले 16 किलो उत्पादन के लिए सिर्फ एक किलो नाइट्रोजन,फास्फोरस की जरूरत पड़ती थी। आज इतने उत्पादन के लिए खाद की मात्रा बढ़कर पांच किलो पहुंच गई है।

बरगद, पीपल के नीचे ही बचा केंचुआ
धार्मिक मान्यताओं के कारण लोग पीपल, बरगद के पेड़ों में रासायनिक खाद नहीं डालते। इस वजह से देशी प्रजाति का केंचुआ इन्हीं वृक्षों के नीचे अपना वजूद किसी तरह बचा रहा है। बरसात में इन वृक्षों के नीचे आधा फुट तक खुदाई करने पर केंचुआ देखा जा सकता है।

दस फुट तक जमीन को उर्वर बनाता है
देशी प्रजाति का केंचुआ जमीन में नमी के हिसाब से दस फुट तक गहराई में जाता है। वह मिट्टी ही खाता है और मिट्टी का ही उत्सर्जन करता है। इससे जमीन को लगातार हवा और पानी मिलता रहता है। इससे उसकी उर्वरा शक्ति बरकरार रहती है।

जैविक खेती के लिए अफ्रीका के केंचुओं का इस्तेमाल
जैविक खेती के लिए 15 वर्ष पहले अफ्रीकी प्रजाति के केंचुए लाए गए हैं। लेकिन ये केंचुए मिट्टी नहीं खाते, बल्कि सड़ा हुआ कचरा खाते हैं। इनका इस्तेमाल कचरे से जैविक खाद बनाने के लिए हो रहा है। लेकिन देशी केंचुए की तरह ये मिट्टी की उर्वरा क्षमता को बढ़ाने में कामयाब नहीं हैं।

क्या है देशी केंचुआ
जीव विज्ञान के प्रोफेसर राजेंद्र चौहान के मुताबिक भारत में दो प्रजाति के केंचुएं आसानी से मिलते हंै। पहला फेरिटाइमा और दूसरा है यूटाइफियस। केंचुए द्विलिंगी होते है। एक ही शरीर में नर और मादा जननांग पाए जाते है। इनके शरीर पर श्लेष्मा की अत्यंत पतली व लचीली परत मौजूद होती है जो इनके शरीर के लिए सुरक्षा कवच का कार्य करती है।

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