191 बरस की हो गई हिंदी पत्रकारिता: सुधी पाठकों व पत्रकारों को शुभकामनाएं

राकेश दुबे@प्रतिदिन। आज अर्थात 30 मई को हिंदी पत्रकारिता 191 वर्ष की हो गई। इस विकास के इस दौर में हिंदी पत्रकारिता कलम से निकल कर कम्प्यूटर तक जरुर आ गई है, पर उसका मूल तत्व “प्रेस स्वातन्त्र्य “ पूंजीवाद और बाज़ारवाद की जद में आता जा रहा है। तकनीकी दृष्टि से शब्द संयोजन और छपाई की सुविधाएँ जरुर बढ़ी, परन्तु कम्प्यूटर ने हिंदी लेखन और विशेषकर शुद्ध लेखन की और कोई विशेष कार्य रूचि नहीं ली। जिससे हिंदी आज भी  कम्प्यूटर के लिए अंग्रेजी के मुकाबले में कम सुगम है। शब्द संयोजन की सम्पूर्णता के लिए कुछ प्रयास निजी तौर पर जारी हैं सरकार तो, राष्ट्रभाषा तय नही कर सकीं है। पूंजीवाद और बाजारवाद ने हिंदी पत्रकारिता को  भारी प्रसार संख्या के बावजूद अभी भी, प्रथम स्थान पर जाने से रोक रखा है।

भारत में हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत बंगाल से हुई और इसका श्रेय राजा राम मोहन राय को दिया जाता है। राजा राममोहन राय ने ही सबसे पहले प्रेस को सामाजिक उद्देश्य से जोड़ा। भारतीयों के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक हितों का समर्थन किया। समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों पर प्रहार किये और अपने पत्रों के जरिए जनता में जागरूकता पैदा की। राममोहन राय ने कई पत्र शुरू किये। जिसमें 1१८१६  में प्रकाशित ‘बंगाल गजट प्रमुख है ’। बंगाल गजट भारतीय भाषा का पहला समाचार पत्र  है। इस समाचार पत्र के संपादक गंगाधर भट्टाचार्य थे। इसके अलावा राजा राममोहन राय ने मिरातुल, संवाद कौमुदी, बंगाल हैराल्ड पत्र भी निकाले और लोगों में चेतना फैलाई। ३० मई १८२६ को कलकत्ता से पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकलने वाले ‘उदंत्त मार्तण्ड’ को हिंदी  का पहला समाचार पत्र माना जाता है।

पत्रकारिता के पुरोधा संपादक आचार्य शिव पूजन सहाय   ने 'संपादक के अधिकार' शीर्षक लेख में लिखा था कि- "हिंदी के पत्र-पत्रिका संचालकों में अधिकतर पूँजीपति हैं, और जो पूँजीपति नहीं हैं, वे भी पूँजीपति की मनोवृत्ति एवं प्रवृत्ति के शिकार हो ही जाते हैं। यही कारण है कि वे संपादकों का वास्तविक महत्व नहीं समझते, उनका यथोचित सम्मान नहीं करते, उनके अधिकारों की रक्षा पर ध्यान नहीं देते। कहने को तो देश को आजादी मिल गयी है, लेकिन पत्रकारिता और पूँजीवाद तथा बाज़ारवाद का बेमेल गंठबंधन आज भी इस आजाद आबोहवा में सिर्फ हिंदी  की ही नहीं, बल्कि पूँजीवादी मनोवृत्ति सभी भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के गले की फाँस बनी हुई है। पूँजीपतियों के दबाव में संपादकों-संवाददाताओं के पास आजादी नहीं है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला पत्रकारिता और उससे जुड़े लोग मालिकों के दबाव में इस कदर हैं, कि वे अपने कर्तव्य का निर्वहन सही तरीके से नहीं कर पा रहे हैं।

'हिंदी और अंग्रेज़ी के पत्रकार' शीर्षक लेख में आचार्य सहाय ने लिखा- "यद्यपि देश के जागरण में, स्वतंत्रता संग्राम  में, राष्ट्रीय आंदोलनों की सफलता में और लोकमत को अनुकूल बनाने में हिंदी पत्रों ने सबसे अधिक परिश्रम किया है, तथापि अंग्रेजी  के पत्रों का महत्व आज भी हिंदी के पत्रों से अधिक समझा जाता है। आज भी जनसाधारण पर हिंदी पत्रों की धाक है, पर हिंदी पत्रकारों की दशा आज भी सोचनीय है। 191 वर्ष बाद भी इस दशा में कोई परिवर्तन नही आया है | संपादक की जगह अब प्रबन्धक समाचार पत्र निकालते है | समाचार पत्रों की नीति राष्ट्र हित के स्थान पर व्यवसाय हित की हो गई  है | मिशन, मूल्य और मुद्दे खोते जा रहे हैं, बाजारवाद के पैर पसरते जा रहे हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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