यह स्कूली धंधा | SCHOOL ANOMALIES

राकेश दुबे@प्रतिदिन। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई की बदहाली के दौर में निजी स्कूलों ने अपने पांव पसारे थे, अब वह एक कारोबार में तब्दील हो चुका है। यह बेवजह नहीं है कि उन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे और उनके अभिभावक आए दिन ऐसा महसूस करते हैं जैसे वे बाजार में खड़े हों। इन स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई की चाहे जो स्थिति हो, लेकिन वहां दाखिला लेने वाले बच्चे और उसके परिवार को ऐसा मजबूर ग्राहक समझ लिया जाता है, जिनसे जब और जितना चाहे, पैसा वसूला जाए या फिर कुछ खरीदने पर मजबूर किया जाए। यह शायद इसलिए संभव होता रहा है कि ऐसी गतिविधियों पर किसी की निगरानी नहीं रही।

लगातार शिकायतों के बाद सीबीएसइ यानी केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने दिल्ली में सख्ती दिखाई और तीन निजी स्कूलों से अपनी मान्यता वापस ले ली। कुछ अन्य स्कूलों पर सीमित कार्रवाई के अलावा सात निजी स्कूलों को कारण बताओ नोटिस जारी करके उनसे पूछा है कि विभिन्न मामलों में नियमों के उल्लंघन पर क्यों नहीं उनकी मान्यता वापस ले ली जाए! इनमें डीपीएस जैसे स्कूल भी शामिल हैं जो ‘स्टेटस सिंबल’ भी माने जाते हैं।

सवाल है कि जब इतने व्यापक तंत्र और सुव्यवस्थित ढांचे के तहत चलने वाले स्कूलों में नियम-कायदों को ताक पर रख, ज्यादा कमाई के लिए वहां पढ़ने वाले बच्चों और उनके अभिभावकों से मनमानी की जाती है, तो वैसे स्कूलों में क्या स्थिति होगी जो आमतौर पर सरकार और संबंधित महकमों की निगरानी से दूर अपनी मर्जी से नियम-कायदे तय करते हैं। आज स्तरीय शिक्षा मुहैया कराने का दावा करने वाले निजी स्कूलों में दाखिले के लिए लगने वाले पैसे से लेकर फीस बढ़ोतरी तक का मामला एक गंभीर समस्या बन चुका है। तमाम अभिभावक इससे परेशान हैं और कई जगहों पर विरोध-प्रदर्शन भी हुए हैं। अगर किसी तरह दाखिला हो भी जाता है तो यह छिपी बात नहीं है कि ज्यादातर निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को खुले बाजार के मुकाबले स्कूलों की मनमानी कीमतों पर कॉपी-किताब, स्टेशनरी, बैग या परिधान और जूते-मोजे खरीदने पड़ते हैं।

जबकि निजी स्तर पर स्कूल खोलने के लिए कई तरह के कानूनी प्रावधान तय हैं। सीबीएसई के नियमों के तहत पंजीकृत सोसाइटी, ट्रस्ट या कंपनी को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि स्कूल सामुदायिक सेवा के रूप में संचालित हो, न कि कारोबार की तरह। लेकिन सामुदायिक सेवा के नाम पर स्कूल चलाने के लिए सरकार से बेहद कम कीमतों पर जमीन और दूसरी सुविधाएं हासिल करने वाले लोगों या समूहों ने आज किस तरह शिक्षा को एक कारोबार बना लिया है, यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन सरकार ने न कभी सार्वजनिक शिक्षा-व्यवस्था का तंत्र दुरुस्त करने की जरूरी समझी, न निजी हाथों में कारोबार बनते स्कूलों पर नियंत्रण करने की। अलबत्ता सीबीएसइ की ताजा कार्रवाई के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि निजी स्कूलों की मनमानी पर किसी हद तक लगाम लग सकेगी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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