स्वागत, पर सब सहज हिंदी में हो ! | LANGUAGE

राकेश दुबे@प्रतिदिन। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने आधिकारिक भाषाओं को लेकर बनी संसदीय समिति की सिफारिशें स्वीकार करके हिंदी के मान को बढ़ाया है। अब, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित गणमान्य लोग अगर हिंदी पढ़-बोल सकते हैं, तो उन्हें हिंदी में ही भाषण देना चाहिए। यह अलग बात है कि हिंदी को लोकप्रिय बनाने के लिए की गई इन सिफारिशों को मंजूर होने में भी छह साल का वक्त लग गया। संयोग ही है कि इन्हें मंजूर करने वाले राष्ट्रपति स्वयं बांग्लाभाषी हैं और उनका कार्यकाल आने वाली जुलाई में खत्म हो रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनका विदाई संबोधन हिंदी में ही होगा।

अपनी मातृभाषा में काम करना, बोलना-बतियाना ही नहीं, सार्वजनिक मंचों पर भी इसी में बात करना गर्व का विषय बनता है। तमाम देश इसमें गर्व महसूस करते हैं। कई बार किसी विदेशी प्रतिनिधिमंडल के सामने हम खराब अंग्रेजी में बोलकर गर्व में डूबे रहे, लेकिन जब उनकी बारी आई, तो वे न सिर्फ अपनी ही भाषा में बोलते दिखे, बल्कि पता चला कि उन्हें तो अंग्रेजी आती ही नहीं। वे दुभाषिए के सहारे काम कर रहे थे, जो हिंदी भी उतनी ही बेहतर समझता था, जितनी कि अपनी भाषा। दरअसल, यह एक तरह की हीन भावना है, जो कई बार हमें सार्वजनिक मंचों पर अपनी भाषा में बोलने से रोकती है।

यह  नई पहल एक बडे़ संदेश के साथ हिंदी को उसका दर्जा दिलाने में सहयोग करेगी। हिंदी की यह नई प्राण-प्रतिष्ठा कुछ मुश्किलों को भी जन्म दे सकती है। यह मानते हुए कि हिंदी सबसे बड़ी संपर्क भाषा है, नए सिद्धांत को अपनाने में दक्षिण पर खास नजर रखनी होगी, जहां हिंदी के प्रति एक खास तरह का पूर्वाग्रह रहा है। शायद इसके साथ दक्षिणी भाषा-भाषियों के प्रति खास तरह की हमदर्दी की जरूरत पड़े। हमें देश की सबसे सशक्त संपर्क भाषा होने के लाभ के साथ उन संदर्भों को जोड़कर भी देखना होगा, जिसे कभी दक्षिणी आकाश से निकले और बड़ी तेजी से भारतीय राजनीति पर छाए के कामराज ने महसूस किया था। उनका मानना था कि उन्हें न हिंदी आती है, न अंग्रेजी- ऐसे में वह देश का नेता बनने की सोच भी कैसे सकते हैं?

इन सिफारिशों में हिंदी के पास इतराने के लिए और भी बहुत कुछ है। सीबीएसई और केंद्रीय विद्यालयों में आठवीं से लेकर दसवीं तक हिंदी अनिवार्य करने, अन्य तमाम स्तरों पर हिंदी अपनाने की बात भी है। सरकारी संवाद और विनिमय की भाषा आसान बनाने की बात भी है। दरअसल, हिंदी को सहज स्वीकार्य बनाने की राह में यही सबसे बड़ी बाधा है, जिसे सबसे पहले दूर करना होगा। सहज हिंदी और सरकारी हिंदी का भेद मिटाए बिना सफलता नहीं मिलेगी। सबसे पहले  उस संकट पर भी नजर रखनी होगी, जो हमारे यहां किसी भी नियम के लागू होने के बाद एक खास तरह कीआपा-धापी के रूप में दिखाई देता है। हमें हिंदी अपनाने की जगह हिंदी थोपा हुआ महसूस कराने के इस संभावित खतरे से भी बचना होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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