अजय जैन। कल दसवीं बार पदोन्नति में आरक्षण प्रकरण में सरकार और हम सर्वोच्च न्यायालय में आमने सामने थे। सरकार और अजाक्स के वकीलों की रणनीति अभी तक सिर्फ सुनवाई टालने की रही है। तमाम प्रयासों के बाद भी अंतत सुनवाई प्रारंभ हो गई। इस प्रकरण का नतीजा सरकार को भी ज्ञात है, पर वह मजबूरियां भी सभी जानते हैं जिसके कारण शासन नतमस्तक है।
यह भी सभी जानते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय में यह मुकद्दमा वास्तव में अजाक्स लड़ रहा है, शासन तो कवच मात्र है और स्वयं मुख्यमंत्रीजी का वरद आशीर्वाद इसमें समाहित है। कल सुनवाई शुरू होने पर वादी (शासन) के वकीलों ने अंतिम अस्त्र दागा। कहा गया यह प्रकरण बड़ी बेंच सुने और यह भी कि एम॰ नागराज प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ का निर्णय ही गलत है।
एम॰ नागराज प्रकरण में हुआ निर्णय मील का पत्थर है और कई राज्यों में इस निर्णय के आधार पर ही पदोन्नति नियम खारिज हो चुके हैं। ताजा उदाहरण हाल ही में आया कर्नाटक राज्य का निर्णय है, जो कर्नाटक सरकार हार चुकी है। यह निर्णय वर्ष 2006 में आया था। आश्चर्यजनक है कि 11-वर्षों तक म॰प्र॰ सरकार को इसमें खामी नज़र नहीं आई और उच्च न्यायालय जबलपुर तक सरकार ने कभी न्यायालय के समक्ष यह तर्क नहीं रखा। बल्कि तब सरकार यह सिद्ध करने की कोशिश करती रही कि नियम एम॰ नागराज के अनुसार ही हैं और निर्णय की सभी शर्तों की पूर्ति करते हैं।
यह भी उल्लेखनीय है कि जब भी व्यक्तिगत रुप से अधिकारियों ने इन नियमों पर आपत्ति ली, शासन की ओर से लिखित जवाब आया कि नियम एम॰ नागराज के निर्णय की पूर्ति करते हैं। यदि शासन को एम॰ नागराज प्रकरण में खामी नज़र आई थी तो इन 11-वर्षों की खामोशी को क्या समझा जावे?
सरकार और अजाक्स की ओर से अब तक 10 से अधिक प्रतिष्ठित और प्रकाण्ड अधिवक्ता खड़े हो चुके हैं। तब भी तर्क और निष्कर्ष की कोशिश की बजाय निर्णय टालने की ही लगातार कोशिश होती रही है और सिर्फ विलम्ब के लिये लाखों का भुगतान किया जा चुका है। वह भी जनता के धन से एक गलत जंग के लिये। यह भी विचारणीय है कि इस जंग में दलगत राजनीति भूली जा चुकी है और काँग्रेस के राज्यसभा सांसद वकीलों श्री कपिल सिब्बल तथा श्री विवेक तनखा को सरकार अनुबंधित किये है। हम इस मुद्दे पर किसे न्याय के साथ समझे?
आरक्षण के संविधान प्रदत्त अधिकारों की एकाधिक बार सर्वोच्च न्यायालय व्याख्या दे चुका है। हर बार संविधान संशोधन कर न्यायालय के निर्णयों को नकारा गया। वही कोशिश फ़िर जारी है। प्रतिकार आवश्यक है। वरना स्वयं को दोयम दर्जे का नागरिक मान लें हम।
लेखक श्री अजय जैन, सपाक्स के संरक्षक हैं।