राकेश दुबे@प्रतिदिन। बारह साल पहले दिल्ली में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के आरोपियों का अदालत से बरी होना यही साबित करता है कि पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार की काफी गुंजाईश है। इसके चलते कितने स्तरों पर लोगों को निराशा और यातना भुगतनी पड़ती है। देश की राजधानी होने के नाते सुरक्षा व्यवस्था के लिहाज से सबसे संवेदनशील होने के बावजूद दिल्ली में बम धमाकों को का होना फिर इस मामले में पकड़े गए लोगों के बारे में यह साबित नहीं किया जा सकना कि वारदात के लिए वही जिम्मेवार थे। पुलिस के काम करने के तौर-तरीके पर एक और प्रश्न चिन्ह नहीं है?
किसी भी आतंकी घटना के बाद अपनी सक्रियता का सबूत देने के लिए आनन-फानन में कुछ लोगों को गिरफ्तार करके वह तात्कालिक तौर पर जन-सामान्य के बीच पैदा हुए गुस्से को तो शांत करने की कवायद जरुर करती है, लेकिन अपनी कार्रवाई को वह विश्वसनीय साबित नहीं कर पाती है। इस मामले में जिन लोगों को बम धमाकों का अपराधी बता कर गिरफ्तार किया गया, उन पर लगाए गए आरोपों को लगभग बारह साल तक चली अदालती कार्यवाही के बावजूद साबित नहीं किया जा सका।मुख्य आरोपी मोहम्मद रफीक शाह और मोहम्मद हुसैन फाजिली सहित तारिक अहमद डार को गिरफ्तार तो किया गया, लेकिन उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं पेश किया जा सका। नतीजतन, पटियाला हाउस अदालत ने इस मामले में फैसला देते हुए किसी भी आरोपी को विस्फोट का दोषी नहीं माना और उन्हें बरी करने के आदेश दिए। जिसे धमाकों का मास्टरमाइंड बताया गया, उस तारिक अहमद डार को सिर्फ एक आतंकवादी समूह से ताल्लुक रखने का दोषी पाया गया और उसे दस साल की सजा सुनाई गई। लेकिन चूंकि वह पहले ही बारह साल जेल में गुजार चुका है, इसलिए वह भी रिहा हो गया। सवाल है कि दिल्ली पुलिस ने इन सभी लोगों को किस बुनियाद पर गिरफ्तार किया था? सारी जांच और पूछताछ से उसने क्या हासिल क्या?
पिछले कुछ सालों के दौरान कई ऐसे मामले सामने आए जिनमें उन युवाओं को अदालतों में आखिर निर्दोष पाया गया, जिन्हें पुलिस ने आतंकी गतिविधियों के आरोप में गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया था। प्रश्न यह है कि अगर रिहा हुए ये लोग निर्दोष थे, तो असली दोषी कौन थे और उन तक कानून के हाथ क्यों नहीं पहुंचे! दिल्ली के मामले में यह हाल है तो बाकी जगह का अनुमान रौंगटे खड़े कर देने के किये काफी है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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