नोट बंदी : थोड़ी और कुशलता चाहिए थी, इस कदम में

राकेश दुबे@प्रतिदिन। कल रात प्रधानमंत्री का भाषण और नोट बंदी /बदलने की खबर एक साथ आ रही थी। सरकार ने प्रक्रिया में कुछ और बदलाव किये हैं। पर ये सब ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रहे हैं। सच है, बड़ा बदलाव आसानी से नहीं आता। कुछ न कुछ परेशानियां तो उसके साथ आती ही हैं। यही परेशानियां हमारी परीक्षा भी लेती हैं। इनसे पता चलता है कि बदलाव के लिए वास्तव में हम कितने तैयार हैं? 

देश इन दिनों ऐसे ही एक बदलाव के दौर से गुजर रहा है। 500 और 1000 रुपये के नोटों का चलन एकदम से बंद कर देना ऐसा फैसला है, जिससे यह तय था कि तरह-तरह की परेशानियां आएंगी परन्तु इतनी किसी ने नहीं सोचा था। जो परेशानियां इन दिनों दिख रही हैं। व्यापारी अपनी तरह से परेशान हैं, कारोबारी अपनी तरह से, तो नौकरीपेशा अलग तरह से। इस बदलाव ने गृहिणियों को भी परेशान किया है, तो छात्रों को भी, अमीरों को भी परेशान किया है, तो गरीबों को भी। आपके पास जमा नगदी का एक बड़ा हिस्सा फिलहाल बेमतलब हो जाए और बैंक व एटीएम भी खुले न हों, तो समस्याएं खड़ी होंगी ही। यह सबको पता था। अच्छी बात यह है कि परेशानी किस स्तर की होगी, इसका एहसास खुद सरकार को भी नहीं रहा होगा। कहने को उसने इस हिसाब से तैयारियां भी की थीं, बल्कि बदलाव की घोषणा से पहले ही उसने सारी योजना बना ली थी। बदलाव का फैसला अगर सरकार के साहस को दिखाता है, तो उसका शुरुआती प्रबंधन सरकारी तंत्र की अर्ध कुशलता की कहानी भी कहता है।

काला धन इस देश से खत्म होना ही चाहिए, इसे लेकर आम सहमति हमारे बीच हमेशा से रही है, लेकिन इस चुनौती की विशालता और निहित स्वार्थों के घालमेल के बीच उसे खत्म करने का रास्ता निकालने की न तो बहुत ज्यादा कोशिशें हुईं और न ही किसी ने हिम्मत ही दिखाई। ताजा कोशिश जिस पैमाने पर हुई है, वह बताता है कि हमारा समाज न सिर्फ इस बदलाव के लिए, बल्कि उसके कारण पैदा हुई समस्याओं से निपटने के लिए भी पूरी तरह तैयार था। आज अगर देश में कोई बड़ा असंतोष नहीं दिख रहा है, तो इसका एक कारण यह भी है। यहां तक कि राजनीतिक दलों ने भी इस फैसले के खिलाफ कुछ नहीं कहा। उनकी आलोचनाएं बस यहीं तक सीमित रहीं कि तैयारी और होनी चाहिए थी, समय और दिया जाना चाहिए था या दो हजार रुपये का नया नोट जारी करने का क्या औचित्य है, वगैरह।

सच तो यह है की हमें अभी यह नहीं पता कि इस बदलाव का असर कितना गहरा होगा और कितना लंबा चलेगा। हो सकता है कि इसके कुछ ऐसे नतीजे भी सामने आएं, जिनके बारे में अभी तक नहीं सोचा गया है। अब उस भविष्य की तैयारी करने का समय भी आ गया है, जिसमें हमारी अर्थव्यवस्था को नगद धन की जरूरत ही न पडे़। दुनिया के कई देश तेजी से इस ओर बढ़ रहे हैं, हमें भी इसकी तैयारी करनी चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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