गाँधी प्रतिमा पर नहीं, उनके विचार पर कुछ कीजिये

राकेश दुबे@प्रतिदिन। भोपाल में इन दिनों कुछ लोग एक गाँधी प्रतिमा को हटाने का विरोध कर रहे हैं। किसी भी महापुरुष की पूर्व स्थापित प्रतिमा के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए। आन्दोलनकारियों में कितने राजनीतिक कारणों से गाँधीवादी है, सब जानते हैं। सच मायने में गाँधी के विचार पर तो देश चला ही नहीं, गाँधी के नाम का इस्तेमाल लोगो ने किया और अब भी कर रहे हैं। उदहारण गांधी की ग्राम-स्वराज्य संबंधी परिकल्पना, जिसे मूर्त करते हुए वे गांवों की पुनर्रचना करने का सपना संजोए हुए थे और इसी में वे हिंद स्वराज को मूर्त होते हुए देखना चाहते थे। लेकिन हम सबको मालूम है कि आजादी मिलने के बाद अपनी परिकल्पना के अनुरूप गांवों की पुनर्रचना करने का अवसर गांधी को सुलभ नहीं हुआ। उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी प्रधानमंत्री बने जवाहरलाल नेहरू को अवसर मिला , जिन्होंने पश्चिमी उद्योग-शिल्प-मशीनीकरण को प्रमुखता देने में ही कृषि-प्रधान देश रहे भारत की उन्नति देखी।

स्वातंत्र्योत्तर भारत में मशीनीकरण की जो हवा चली उसने न केवल गांधी परिकल्पित ग्राम-स्वराज्य को, बल्कि गांवों में सदियों से चले आ रहे हस्त-उद्योगों को भी तहस-नहस करके रख दिया। आज गांवों में कुम्हार, बढ़ई, लोहार, बुनकर, ठठेरा (बर्तन बनाने वाले), मोची आदि सभी के हस्त-उद्योग समाप्तप्राय हो चुके हैं और इनकी जगहों पर बड़ी-बड़ी कंपनियों, फैक्टरियों के उत्पादित माल ने कब्जा कर लिया है।सच तो यह है कि गांवों के आर्थिक स्वावलंबन के आधार रहे ग्रामोद्योग का जितना विनाश ब्रिटिश शासन ने नहीं किया, उससे कई गुना अधिक विनाश हमारे देशी शासन-तंत्र ने किया है । ग्रामोद्योगों के विनाश का भयावह दुष्परिणाम यह हुआ कि गांव उद्योग-विहीन हो गए और वहां के युवक रोजगार के अभाव में शहरों की ओर या फिर खाड़ी देशों की ओर रोजगार के लिए पलायन करने लगे हैं।

इसमें दो मत नहीं कि कृषि-यंत्रों के चलन ने खेती को सुविधाजनक बनाया, पर इसका अनिष्टकारी पक्ष इस रूप में प्रकट हुआ कि इसके कारण खेतिहर मजदूरों के लिए रोजगार के अवसर कम हो गए। यही नहीं, इससे पशु-धन के समाप्त होने जाने का भी संकट आ खड़ा हुआ। ट्रैक्टर, थे्रसर, बोरिंग मशीन आदि ने हल, दवनी, रहट आदि के काम आने वाले बैलों की उपयोगिता खत्म कर दी। गाय-भैंस जैसे दुधारू मवेशियों की भी संख्या कम होती जा रही है, क्योंकि इन मवेशियों को पालने-पोसने में सिर्फ नौकरी के लिए आकुल-व्याकुल पीढ़ी की दिलचस्पी कम होती जा रही है। जो पंचायत-व्यवस्था गांवों में सौहार्द कायम रखने की भूमिका निभाती आई थी, उसमें भी चुनावी राजनीति के कीटाणु घुसपैठ करते जा रहे हैं। आज आलम यह है कि मुखिया, सरपंच, प्रमुख आदि के चुनाव में वोट खरीदे जा रहे हैं, मारपीट से लेकर हत्याएं तक हो रही हैं। गाँधी की प्रतिमा रहे, पर उसके विचार के रूप में भी कुछ कीजिये।

श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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