भारत में क्रिकेट सुधरती नहीं दिखती दशा

राकेश दुबे@प्रतिदिन। 17 अक्तूबर को यह तय होगा की भारतीय क्रिकेट किस दिशा में जाएगी। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के लिए इस दिन आने वाला फैसला बहुत कुछ तय करेगा। इस संस्था के भविष्य तय होने के पहले इसके इतिहास पर भी एक दृष्टि जरूरी है। आईसीसी की नींव 1907 में लंदन में इम्पीरियल क्रिकेट कान्फ्रेंस के रूप में पड़ी थी, जिसके ठीक 21 साल बाद बीसीसीआई का जन्म (गठन) हुआ। साल 1965 में इम्पीरियल क्रिकेट कान्फ्रेंस का नाम बदलकर इंटरनेशनल क्रिकेट कान्फ्रेंस हो गया, जो बाद में इंटरनेशनल क्रिकेट कौंसिल के नाम से जानी गई। आईसीसी के स्थापना काल से लेकर आज तक इसका मुख्यालय लंदन में ही है। 

बीसीसीआई का इंग्लिश कनेक्शन यहीं खत्म नहीं हो जाता। बीसीसीआई के लोगों में भी इंग्लिश कनेक्शन मिलता है। इसका लोगो उस ब्रिटिश प्रतीक चिन्ह से प्रेरित है, जिसकी स्थापना 1861  में ब्रिटिश हुकूमत के साथ दोस्ती रखने वाले भारतीय राजा-महाराजाओं-युवराजों के साथ ही उन भारतीय व ब्रिटिश प्रशासकों को सम्मानित करने के लिए की गई थी, जिन्होंने ‘क्राउन’ की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

भारतीयों में खेलों के प्रति जुनून ही है कि अदालतों ने हमेशा क्रिकेट को लोकप्रिय और जनता के लिए अच्छा माना। अदालतों के वे फैसले भी इसी भावना से प्रेरित थे, जब सरकारी चैनल दूरदर्शन को क्रिकेट के महत्वपूर्ण मैच अपने नेटवर्क पर नि:शुल्क दिखाने की अनुमति दी गई। ऐसे प्रसारणों के लिए दूरदर्शन को उस शुल्क से भी मुक्त रखा गया, जो ऐसे में बीसीसीआई या प्रसारण अधिकार वाली संस्था को देना पड़ता है।

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को जिस कानूनी विवाद पर फैसला सुनाया, उसके मूल में यही मुद्दा है। बीसीसीआई को दरअसल आज भी वही लोग चला रहे हैं, जो मान बैठे हैं कि वे ही खेल के असली संरक्षक हैं। कल के युवराजों की जगह अब ऐसे कुलीन राजनीतिकों ने ले ली है, जिनके लिए दलों की सीमा के भी कोई मायने नहीं हैं। उन्होंने एक ऐसी जगह पर पब्लिक और प्राइवेट सेक्टर का गठजोड़ बना रखा है, जहां इसकी कोई जरूरत नहीं है।यह सब शायद चलता भी रहता, अगर टैक्स को लेकर समस्या न खड़ी होती और कई छोटे-बड़े विवाद सामने न आए होते। अगर सट्टेबाजी का वह घोटाला न सामने आया होता, जिसमें बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष का दामाद ही शामिल था और अगर एक राज्य का संगठन यह तय न करता कि अब वह बीसीसीआई के रंग-ढंग से और नहीं चल सकता। 

मोटे तौर पर इस रंग-ढंग का मतलब है- ‘हम जो भी करते हैं, वही आधिकारिक है, और दूसरे जो भी करते हैं, वह आधिकारिक नहीं। हम और हमारे लोग गलत नहीं कर सकते।’ लोढ़ा कमेटी ने बीसीसीआई में तदर्थवाद खत्म करने, जवाबदेही बढ़ाने के साथ यह सुनिश्चित करने का सुझाव दिया गया कि जहां तक संभव हो, खेल का नेतृत्व ऐसे प्रोफेशनल हाथों में रखा जाए, जो या तो विशेषज्ञ खेल प्रशासक रहे हों या जो पूर्व खिलाड़ी (राजनेता नहीं) हों।

कमेटी द्वारा तय मापदंड़ो में से बी सी सी आई में एक भी गुण नहीं था, इसीलिए उसने सुप्रीम कोर्ट द्वारा जुलाई में दिए गए आदेश के बावजूद इसकी ज्यादातर सिफारिशें दरकिनार कर दीं। सितंबर में न्यायमूर्ति लोढ़ा ने शीर्ष अदालत से कहा कि बोर्ड के वर्तमान प्रशासकों को इसलिए हटा दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे कमेटी की सिफारिशें नहीं मान रहे हैं (कोर्ट ने भी इस बात को सही माना)। शीर्ष अदालत ने शुरुआत में तो नरम रुख रखा, लेकिन कई सुनवाई के बाद भी हालात नहीं बदले हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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